Saturday, January 2, 2010

सायास ही किसी का रुदन नहीं होता......

सायास ही किसी का रुदन नहीं होता , वेदना जब असीम हो जाय सब कुछ धरा का धरा रह जाता है चाहे वह कोई खुशी हो , त्यौहार हो या नव वर्ष ...! कल एक ओर सारे लोग नूतन वर्षाभिनन्दन में मग्न थे और पास में ही पड़ोसन का बेटा गुम हो गया । माहौल अफरातफरी का हो गया । बधाईयों और अभिनन्दन के दौर में ऐसा हो जाना बहुत ही कष्टकारी होता है । एक तो उसका पिता घर से बाहर सुदूर रहता है । घर में उसे व उसकी मां को लेकर छोटी बहन कुल तीन की संख्या थी । पुत्र का इस तरह से गुम होना किसी पहाड़ के टूट के गिरने से कम न था ।

मां के लिए पति की अनुपस्थिति में बेटा ही आधिकारिक संबल होता है । घर का खर्चा किसी तरह से सिलाई - बुनाई, फाल- पीको आदि से चलाना इस इक्कीसवीं सदी की दुनिया में आसान नहीं । उसकी मां को किसी प्रकार से विश्वास दिलाने की कोशिश कब से की जा रही थी कि धीरज रखिये कुछ लोग उसे ढूढने में लगे हैं । मुहल्ले में किये गये सद व्यवहार की परख ऐसे ही समय में होती है जब व्यक्ति विपरीत परिस्थिति से गुजर रहा होता है ।

ऐसी घटनायें अनायास ही मन में चिढ़्चिढ़ापन ला देती हैं कि हे भगवान... ! आखिर में मैने आपका क्या बिगाड़ा था कि विपत्तियों का सामना हमें ही करना हो रहा है । सचमुच आस्तिकता को धक्का लगना स्वाभाविक है ....परिस्थितियां जब विपरीत होती हैं ..विवेक स्वभावत: काम करना बन्द कर देता है । उसके सामने हंसी - खुशी की बात ... उसे मजाक उड़ाने जैसी प्रतीत होती है ।

दूसरों के दिये जा रहे आश्वासन से किसी भी मां के कलेजे को राहत नहीं मिलती । उसे तो बस उसका लाल चाहिये । मां के जीवन का उत्साह बच्चों के लालन - पालन में ही होता है । नियति जब इससे भी उसे वंचित कर दे .....सच में....! उसका सर्वस्व बिखरता हुआ दिखना कहीं से कमतर नहीं । सामाजिक सरोकार सिवाय सहयोग के हृदयाघात को मिटा सका है भला........?

शाम होते- होते वह बालक अपने मित्र व उसके माता - पिता के साथ घर आया । अब क्या था......? गले से लगा रो पड़ी वह...। छोटा सा बालक सूचना का हाल तो जानता ही न था कि घर बताना या न बताना जैसी भी कोई बात होती है .....! उसे तो बस छुट्टी में मौज करना था । मां के लिये पल भर भी बालक ओझल हो जाय, कितना मुश्किल होता है खुद को संभालना । यहां .......सुबह से शाम हो चली थी .........!

7 comments:

Himanshu Pandey said...

बिलकुल ! अंतिम पंक्ति तो पूरी झलक ही दे रही है !

सुन्दर प्रविष्टि !

वाणी गीत said...

माँ के लिए अपने बच्चों का मोह ऐसा ही होता है ...
सायास किसी का रुदन नहीं होता ...ब्लॉगजगत का हाल देखकर ये पंक्तिया बहुत सार्थक प्रतीत हो रही हैं ...

Udan Tashtari said...

बिल्कुल यही तो है!!

Mishra Pankaj said...

मन भर आया पढ़कर ये संवेदनशील लेख पढ़कर ...जरुरत है ऐसे लेखो की और उस पर अमल की .आइये निर्णय ले समाज को सुखी समृद्ध बनाने की

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

.......सुबह से शाम हो चली थी .........! अवसाद ही जैसे घनीभूत हो गया हो।
अच्छा हुआ कि बच्चा मिल गया। रही बात ईश्वर की तो वह हमारी आप की सर्वोच्च कृति है।

Sandesh Dixit said...

माँ का प्यार ........ जाने कितनी ही भावनाए सिमटी है
worpress से blogspot पर आया हूँ एक रचना के साथ...पढ़े और टिपण्णी दे !!!

Jai Prakash Chaurasia said...

बहुत ही गहराई से किया गया लेखन |