Sunday, September 26, 2010

धर्मव्रता

Gandhari : Image from Google
महाभारत का युद्ध आरंभ होने से पूर्व दुर्योधन का मन आशंकित होने लगा । पांडवों की सेना,उनके परमवीर, उनका साहस देखकर दुर्योधन को अपनी विजय में शंका होने लगी । वह बहुत ही चिन्तित हो गया । उसके सभी साथियों और भाईयों ने उसे समझाने का प्रयत्न किया , लेकिन उसका मन किसी केभी आश्वासन सुनने और मानने के लिये तैयार नहीं था ।

अन्त में द्रोणाचार्य ने उसे सलाह दी कि उसकी माता गान्धारी परमव्रता हैं,वह अपने बेटे का अहित कभी सोच ही नहीं सकती । अत: यदि वह अपने पुत्र को अजेय होने का आशीर्वाद दे सकें तो फिर चिन्ता की कोई बात नहीं रह जाती है । ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि माता गान्धारी ऐसा आशीर्वाद नहीं देंगी ।

दुर्योधन को यह सुझाव उचित लगा । उसे निश्चय हो गया कि माता गान्धारी का आशीर्वाद पाकर वह अजेय हो जायेगा और फिर पांडव उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे । यह सोचकर वह अपनी माता गान्धारी के पास गया । उसने कहा. ”माँ, मैं युद्ध के लिये प्रस्थान करना चाहता हूं, प्रस्थान से पूर्व तुम्हारा आशीर्वाद चाहिये । माँ, मुझे आशीर्वाद दो कि मैं अजेय रहूं,मुझे कोई भी पराजित न कर सके । तुम्हारा आशीर्वाद पाकर मैं शत्रुओं को पराजित कर सकूंगा ।

माता गान्धारी ने कहा , “दुर्योधन , तू भूलता है । अजेय होने का आशीर्वाद मैं तुझे नहीं दे सकती।
दुर्योधन चौंक कर बोला,:ऐसा क्यों माँ ?”

“इसलिये कि ऐसा आशीर्वाद केवल उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जो धर्माचरण करता हुआ सत्य पर टिका हुआ है । तुमतो धर्म और सत्य से बहुत ही दूर हो।“
दुर्योधन विचलित होकर कहने लगा,”पर माँ मै तुम्हारा बेटा हूँ।

“इस सत्य से मैं कहाँ मुकरती हूँ , लेकिन मात्र पुत्र होने से ही मेरे सत्य और धर्म का अधिकारी तू तो नही हो जाता । यदि यह आशीर्वाद मैं तुझे दे दूँ तो मैं अधर्मी और असत्यमार्गिनी कहलाऊँगी । अजेय होने का आशीर्वाद मैं केवल उसी को दे सकती हूँ जो सत्य और धर्म के मार्ग पर चलता है और उसका एकमात्र अधिकारी युधिष्ठिर ही है ।“

माँ की बात को सुनकर दुर्योधन बहुत ही निराश हो गया । अति दुखी होकर उसने कहा,” तो माँ, मेरे लिये तुम कोई उपाय नहीं करोगी ?”
“उपाय तो युधिष्ठिर ही बतायेंगे । तुम उनके पास जाओ ।“
“पर वे तुम्हारे शत्रु हैं ।“
“तुम्हारी आँखें उन्हें शत्रु ही देखेंगी , किन्तु वे एक धर्म-परायण व्यक्ति हैं । विजय का उपाय तुम्हें अवश्य ही बतायेंगे । जाओ उनके पास ।“

विचारों में खोया-खोया दुर्योधन मन-ही-मन माँ की बात ध्यान में लेकर युधिष्ठिर के पास पहुँचा ।और अपने आने का अभिप्राय कह सुनाया ।
युधिष्ठिर कहने लगे, "यह तो बहुत ही आश्चर्य की बात है कि माँ गान्धारी ने तुम्हें मीरे पास भेज दिया है । वे मुझे धर्म परायण समझती हैं लेकिन इस समय पृथ्वी पर उनसे बड़ा धार्मिक व्यक्ति कोई है ही नहीं ।"

युधिष्ठिर के मुह से यह सुनकर दुर्योधन को अच्छा तो लगा लेकिन उसे पता था कि माता गान्धारी आशीर्वाद नहीं देंगी । उसने युधिष्ठिर से पूछा, "क्या सचमुच भैया इसमे संदेह और शंका के लिये तो बिल्कुल भी स्थान नहीं है, पर भैया मुझे स्पष्ट समझाओ कि धर्म और सत्य के विषय में बड़ा कौन है – आप अथवा माता गान्धारी 
"निश्चय ही माता गान्धारी । मैने कहा कि इस समय संसार भर में सबसे अधिक सत्यमार्गी होने का पुण्य और सौभाग्य माता गान्धारी कि ही प्राप्त है ।"

"इसका क्या प्रमाण है ?"
"इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि आज तक किसी नारी ने अपने पति के अवगुण को आत्मसात नहीं किया है जबकि माता गान्धारी विश्व की पहली स्त्री हैं जो पति के अन्धे होने के कारण स्वयं भी आँखॊं पर उसी दिन से पट्टी बाँधकर जी रही हैं जिस दिन से उनका विवाह हुआ । पति के अन्धेपन का दुख भोगे और पत्नी आँखॊं का सुख भोगे इस विषमता को दूर करने के लिये ही उन्होँने विवाह के प्रथम दिन से ही आँखॊं पर पट्टी बाँध ली थी । बताओ आजतक किसी स्त्री ने धर्म सत्य और पतिव्रत धर्म के मार्ग पर इतना बड़ा बलिदान किया है."

"पर भैया माता ने तो मुझे तुम्हारे पास ही भेजा है ।"
"यह उनकी महानता है कि वे अपने कॊ इतना बड़ा सत्यमार्गी नहीं समझती । लेकिन मैं तुम्हें उपाय बता रहा हूँ । तुम माता के सामने सर्वथा नंगे होकर चले जाओ और उनसे निवेदन करो किवे एअ बार आंखॊं से पट्टी हटा कर तुम्हारे सारे शरीर को देख लें और उसपर पूर्ण दृष्टिपात कर दें । ऐसा होने पर तुम्हारा सारा शरीर ही वज्र का हो जायेगा । फिर उसे कोई भी छेद अथवा भेद नहीं सकेगा ।"

"माता गांधारी का पुण्य और उनकी दृष्टि की दिव्यता, जो पति की भक्ति में रहने के कारण प्राप्त हुई है . तुम उनके पास जाकर दृष्टिपात करने के लिए निवेदन करो ."
दुर्योधन अपनी माता के पास जाकर बोला, "माँ भैया ने कहा है कि तुम अपनी आँखों की पट्टी खोलकर एक बार पूर्ण रूप से मेरे सारे शरीर पर दृष्टिपातकर दो ."

गांधारी ने दुर्योधन की बात को स्वीकार कर लिया . दुर्योधन माता के सामने सर्वथा नंगा होकर नहीं आ सका. लाज के कारण उसने लंगोट पहन ली थी. सामने आने पर माता गांधारी ने अपनी आँखों की पट्टी खोल दी और दुर्योधन के पूरे शरीर पर दृष्टिपातकिया. लेकिन लंगोट वाला हिस्सा तो ढँका हुआ होने के कारण कच्चा ही रह गया, शेष सारा अंग लोहे जैसा वज्र हो गया.

महाभारत युद्ध के अंत में दुर्योधन और भीम में गदा युद्ध हुआ. इस युद्ध में भीम गदा मारते मारते थक गया था, लेकिन दुर्योधन को नहीं मार सका. कृष्ण जानते थे कि लंगोट वाला अंग कच्चा रह गया है. अतः उन्होने भीम को संकेत किया, तभी दुर्योधन मारा जा सका था .
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यह कथा किताबघर से प्रकाशित श्री ब्रजभूषण की पुस्तक नारी गुणों की गाथायें से ज्यों की त्यों प्रस्तुत कर रहा हूं ।  पुस्तक की कुछ अन्य कथाओं से नारी के अनिवार्य गुणों से हम परिचित हो सकेंगे । किताबघर और श्री ब्रजभूषण से बिना अनुमति के लिख रहा हूं, क्षमा प्रार्थी हूं इसके लिए । साभार ।
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Friday, September 17, 2010

बाबा सारंगी वाले

अब नहीं आते बाबा
सारंगी वाले
बचपन में
दादी
दिया करती थी
भर पेट भोजन
और
साथ में ढेर सारा दान
प्रसन्न हो
बाबा सुनाते थे --
बदले में
कई निर्गुण..!
हम सब बच्चों की टोली
जमा हो जाती थी उनके आस-पास
हम सभी
बस इतना ही जानते थे
बाबा हैं तो
राम धुन ही गायेंगे....!

अब न दादी रहीं, न दादी का दान, 
समय की करवट ने
छीन लिया बाबा, निर्गुण, रामधुन को ।

तो
अब नहीं आते
बाबा सारंगी वाले....!

Monday, April 5, 2010

कहीं यह पलायन तो नहीं...!






प्रत्याशित सफलता का न होना
नीयति पर ठीकरा कसना क्यों हो...?
कहीं यह पलायन तो नहीं...!
इसकी समीक्षा
ठंडे बस्ते में डाल देती है
गर्म लोहे के ताप को
असफलता से प्राप्त
आग की ज्वाला
यदि सच्ची है
फिर
तपा कर स्वयं को
कुन्दन न बना देगी....!

Wednesday, March 10, 2010

ख्वाब से हकीकत की यात्रा में

http://i.ehow.com/images/a05/1v/tn/go-green-camping-ecofriendly-tips-120X120.jpg
ख्वाब से हकीकत की यात्रा में
अनेक पड़ाव हैं...

आत्मबोध
जहां
तय होता है
भविष्य यात्रा का ...!

नकारात्मकता
जिससे लड़ना है
यदि बढ़ना है
आगे....!

कुछ दूर और चलने पर
मिलेगा....
सकारात्मक भाव
बढ़ेगा हौसला
और

हो सकोगे यथार्थोन्मुख....।

Monday, February 8, 2010

ले जाना है मुझे........!

समय का सामना
निष्ठा से हो
कुछ भी कठिन नहीं
चट्टान सी समस्या भी
दरकने लगती है.....।

उसके बीच से
राह खुद-ब-खुद
आमंत्रण दे रही होती हैं....
देखो.....
मैं राह हूं
आओ ..!
ले जाना है मुझे.....!

वहां
जहां
मंजिल के पार
और भी बहुत कुछ है
क्योंकि जानता हूं मैं
मंजिल तो बस ...
एक पड़ाव है
और
इसके सिवा कुछ भी नहीं.....!

Wednesday, February 3, 2010

उस व्यक्ति के लिये ....

उस व्यक्ति के लिये जिसका कोई स्थानापन्न नहीं मेरे जीवन में ---

आदर्श चुक जाता है वहाँ, विचार झनझनाने लगते हैं । चिन्तना कुछ मुखरित हो अपने सम्पूर्ण स्वरूप में संकलित होने लगती है । दृष्टि उलझने लगती है - कुछ अनचीन्हें, कुछ अनजाने या फिर अन्तर्निहित तत्वों से । दिखायी देता है कभीं यथार्थ तो कभी स्वप्न तो कहीं-कभीं जीवन दर्शन भी । विकसित होते है पत्र कुछ स्नेह के तो आक्रोश भी बड़ा सजग खिलने की चेष्टा में रहता है उत्सुक । फिर भी दिखायी दे जाती है चिन्तारहित मुस्कान , मुस्कान ही नहीं हँसी जो है निश्चिंतता का विश्वास । 

मनुष्यता का वरदान यदि कुछ है तो क्या ? जीवन ! केवल जीवन । जीवन का आधार क्या - सरसता । सरसता के लिये आवश्यक है भाव, स्नेह, और प्रेम । 

वहाँ भाव की प्रवणता है, उसका पारखीपन नहीं । वहाँ स्नेह की शीतलता है परन्तु अतृप्त व्यामोह के साथ । वहाँ प्रेम भी है पर उसका विस्तार नहीं , वह केवल एक संज्ञान है । मनुष्यता तो हावी है उनपर, मगर कुछ भटकती, बिलखती और खोजती अपना ही स्थान । वहाँ जीवन की सरसता भी देखी है मैंने - संवेदी, शंकित, अवगुंठित । 

इनके कुछ होने और इनके कुछ कर देने में अन्तर है । इनका कुछ होना इनकी दृष्टि में कुछ भी नहीं । हाँ, इनका कुछ कर देना एक विशिष्ट अर्थ रखता है । इन्होंने अपने व्यक्तित्व की ऊर्जा भी शायद अपने कार्यों में लगा दी । चतुर हैं, जानते हैं कि व्यक्ति के कार्य उसके व्यक्तित्व के निर्धारक हैं । शायद इसीलिये महत्व कुछ कर देने का है इनके लिये, होने का नहीं ।

उनके लिये कार्य का  महत्व है , महत्व का कार्य नहीं । कौन खाली है जो महत्व के कार्य की खोजबीन में समय गँवाए । किसने सोची हैं परिस्थितियाँ जो महत्व के कार्यों का निर्धारण कर सकें । इनके कार्य का महत्व है । कार्य पहले महत्व बाद में । पहला व्यक्तित्व है जिसने शरीर को आत्मा के बिना गतिशील रखा है ।

Saturday, January 30, 2010

तरलता से ही जुड़ते तुम..

तुम नहीं हो
यह अनुभव
नयन सजल कर देता है,
तुम्हारा होना भी
आँखे भर देता है ।

तरलता से ही जुड़ते तुम
हर कहीं, कभीं भी ।