Thursday, December 31, 2009

मर्म की टोकरी भरने को है......


मर्म की टोकरी भरने को है
चलायमान सुधियों में
जिसने देखा
कदम से कदम मिलाते
हर क्षण को
चक्रारैव पंक्ति में
जहां
स्थान तलाशती
नित अभिनव होने को
अनगिन खुशियां....।

हां तुम हो पास ही
पर
तीसरा नेत्र कहां
वंचित हूं न......!

Sunday, November 22, 2009

जब जब उठने का अवसर मिला

जब जब उठने का अवसर मिला
धड़ाम से गिरा दिया जाता हूँ मैं
कभी प्रकृति
कभी नियति
कभी किसी बड़ी बीमारी का
आकस्मिक अटैक
कि झट से उबर भी न सको

असर पड़त्ता है मनोदशा पर
रुटीन इकोनोमी पर
अपनों पर
जुड़े शुभेक्षुओं पर ।
सुबह से शाम तक सरकती
जिन्दगी
रात को आराम ले
फिर आ खड़ी होती है कमर कसके
हर क्षणका  सामना डट के करने को

इस चल रही निरन्तर प्रक्रिया में
शरीर के साथ ही  मनोदशा की भी
जम के परीक्षा हो जाती है
आखिर कब तक लगातार
परीक्षा में पास होता रहेगा
शरीर, फिर मनोदशा

चुकना भि तो है नियति
सो स्वभावतः
बीमारी का निशाना बन पड़ा
अब तक जो भी पाने में
बिना खयाल किये
खटाया था
चलो अब जुर्माना दो

जब प्रकृति संतुलन पर आधारित है
देह-धर्म कैसे अलग हो सकता है भला .... ।

Wednesday, November 11, 2009

कितना उचित है....?

अपने ही देश में
राष्ट्र-भाषा की अवहेलना
करने को आतुर होना
कितना उचित है....?

यह ठीक है
हर प्रान्त की अपनी
आंचलिक भाषा हो
बात समझ में आती है
पर
काम-काज में
हिन्दी अपनाने से भागना
कहीं से उचित है भला...।

हिन्दी की स्थापना से आशय
यह कदापि नहीं कि
आपकी आंचलिक भाषा को
उपेक्षित किया जा रहा है....।

बार-बार अपने होने का बिगुल फूकना
बुद्धिमत्ता का परिचायक कहां से है..
राष्ट्र-भाषा की सशक्त उपस्थिति को
कैसे खण्डित कर सकता है कोई.....?

ऐसा करना
अपने आपको
टुकड़ों में बांटने जैसा है.....।

Saturday, November 7, 2009

चली जा रही थी वह ....


चली जा रही थी वह .....!अपनी यादों को झोली में डाल ....। डोली में बैठ ....। छूटा जा रहा था..। बाबुल का घर...। मानो पीछे छूटता हुआ...., नैहर और घनीभूत हो हृदयंगम हो उठा हो । अश्रुधारा अपने कोमल अहसासों को बार-बार समेटे गालों से नीचे तक धार बना बह रही थी । सामने डोली में बैठा सजन भला उसे संभाल सकता था भला , शायद नहीं । चाह कर भी वह विदा करा कर घर ले जा रही ब्याहता को चुप कराने में असमर्थ सा हो रहा था । कहांरो के कदम आगे बढ़ रहे थे और उसका मन अपने बचपन की दुनियां की ओर लौट रहा था..। खो सी गयी वह....।

चार सखियों समेत उसे लेकर कुल पांच की टोली । जिसके लिये कोई काम असंभव नहीं । बचपन से किशोरावस्था के बीच किसी भी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम थी हमारी टोली ।किशोरी होने तक पाबंदियां जो नहीं थी ।सखियों के साथ गंगा जी के किनारे नहाने आते- जाते पुरुष और महिलाओं पर फिकरे कसना ,ठहाके लगाना, मौज-मस्ती करना, स्कूल में मास्टर जी की बातों को हवा में उड़ा देना । घर आकर अपनी कोठरी में जा रजाई तान के सो जाना ,सुबह देरी से उठने के लिये मां से डांट सुनना, बाबू जी के माथे पर अपने बडे़ होते देख चिन्ता की लकीरें । क्या यह सब भुलाया जा सकता है ...? चारों सखियां पहले ही ससुराल जा चुकी थीं । उनके मां - बाप बहुत पैसे वाले जो ठहरे ।

अजीब है समाज का ढांचा । जहां दहेज ने नस-नस में अपना पैसार कर रखा है ।जिस बाप को भगवान बेटी दें उसे धन भी पर्याप्त दें । बिना धन के बेटियां असमय ब्याह दी जाती हैं । चाहे समय से पहले या बाद में । उनके सारे अरमानों पर पानी फिर जाता है । समाज में कितने उलाहनों को सहना होता है उन्हें । हर शोहदों की बुरी दृष्टि से बचना होता है । अपनी अस्मिता व पिता की मर्यादा दोनों के लिये । मेरे बाबू जी पहले ही तीन बेटियों व एक बेटे की शादी करने में अपना सब कुछ दांव पर लगा चुके थे । स्वाभाविक था कि मेरी शादी में बाबू जी से विलम्ब हो । हां ! पिता जी भैया की शादी में दहेज मांगे ही न थे । पर दहेज न मांगने से दहेज न देने की स्थिति का निर्माण नहीं हो जाता । शादी में हम दहेज न लें पर हम किसे मनायेंगे कि आप भी दहेज न लो । बिटिया की शादी करनी है तो दहेज देना ही होगा ।

कितना अजीब होता है नारी का जीवन ? कहीं भी से आस्वस्त भाव नहीं प्राप्त नहीं होता । बचपन में मां - बाप की सेवा ,विवाहोपरान्त पति के अधीन समर्पण भाव ,फिर सन्तान की सेवा । जहां देखो त्याग ही त्याग ...। शायद इसी लिये सहनशक्ति का भाव यूं ही विकसित हो जाता है । सहते- सहते वह इतनी परिपक्व हो जाती हैं कि प्रसव पीड़ा के लिये भी गुजरने को तैयार हो जाती हैं । मर्दों को यदि ऐसी स्थिति से गुजरना शायद इनके बस की बात नहीं ।

ध्यान भंग होते ही देखती है ससुराल आ गया है अब तो  डोली से बाहर नयी दुनियां में निकलने का वक्त है......।

Wednesday, November 4, 2009

कहीं यह मेरे पैरों से.....


राह पर चलता हुआ आदमी
निहार रहा है
राह के कंकड़ों को
जिसने कितनों से  खाया होगा
ठोकर
उसकी ओट में
जा दुबकती चींटी को
यह समझ कर कि
कहीं यह मेरे पैरों से
दबने के डर से
ही नहीं जा चिपकी है
उसकी ओट से
नन्हीं सी जान
जिसे बोध है
जीवन मरण का
आज
आदमी
महत्वाकांक्षा की होड़ में
खुद को भूलता जा रहा है
रास - रंग व भौतिकता से अवकाश
शायद
उसके अपने बस की बात नहीं !

Monday, November 2, 2009

अहंकार के बादल......

रुतबा
शब्द आते ही
सायास

दिलो -दिमाग के किसी कोने में
अहंकार के बादल
घुमड़ - घुमड़
हवा के साथ - साथ
गलबहियां शुरु कर देते हैं

सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।

Tuesday, October 20, 2009

दोराहा......

पापा क्यों नहीं घर आ रहे मम्मी ! दीवाली भी बीत गयी ! बहुत दिन पहले आये भी तो बस पीछे का दो कमरा बनवा गये । बिटिया के सवालों का जवाब मीरा कैसे देती । पिछले कई बार से उनके आने पर बदले हुए हाव -भाव कुछ नकारात्मक संकेत दे ही रहे थे कि बच्चों के बार-बार पूछने पर जवाब देते नहीं बन रहा था । हां उनका एक काम अप्रत्याशित दिख रहा था कि इतने सारे पैसे लगातार रोजमर्रा की कमाई से अधिक कहां से ला रहे थे । राज कुछ समझ में भी न आ रहा था कि इतने पैसे आये कहां से कि पीछे का दो कमरा आसानी से बनवा दिया ।

इधर राहुल पैसे कमाने की बजाय पैसे पाने की ओर ऐसा उन्मुख हुआ कि इतना आगे निकल आयेगा उसे खुद भी पता न था । दुकान पर काम करने की बजाय एक ऐसी औरत जो अपना घर बार सब छोड़ नयी दुनियां की तलाश में आ मिली राहुल से । हां पैसे थे उसके पास । उसने एक मरद की खातिर अपना सारा पैसा - गहना सब इसी राहुल को दे दिया । वह राहुल के बताने पर भी उसकी दूसरी बीबी बनने को तैयार हो गयी । राहुल दो
लड़कों व एक लड़की समेत तीन बच्चों का बाप था । कायदे से  दो वक्त की रोटी भी जुटाना मुहाल था । सोचा कि पहले इसके पैसे से घर बनवा लूं  बीबी और बच्चों को बाद में मना लूंगा । तब तक इसे इधर ही किराये के मकान में रखुंगा । किसी को पता भी न चलेगा । आसानी से घर भी जाया करूंगा और बीबी और बच्चों की परवरिश भी होगी  और इधर कमा धमा एक नया घर बना इसे अलग रखूंगा । दोनों बीबियां अलग-अलग रहेंगी किसी को क्या ऐतराज मैं एक बीबी रखूं या दो । अरे यह तो इतना सारा पैसा हमें दे रही है कि दोनों को भली - भांति रख सकूंगा और बच्चों को आसानी से पढ़ा- लिखा सकूंगा । लेकिन कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था।

राहुल का दोस्त अचानक दूसरी औरत के साथ राहुल को बाजार में देख राहुल का पीछा करना शुरु किया । अवाक रह गया वह । वह उसकी दूसरी बीबी होगी पहली के रहते अन्दाजा ही न था । राहुल तो मुह छिपा रहा था पर वह औरत बोली मैं इनकी दूसरी बीबी हूं । मैने इनके साथ कोर्ट मैरिज की है । कुछ ही महीने में मुझे बच्चा भी होने वाला है । यह जान होश उड़ गये रमेश के । भागा भागा आया गांव । अरे भाभी गजब हो गया । कैसे कहूं आज जो अपनी आंखों से देखा । सब कुछ क्रमशः सुना गया वह । सुनते ही मीरा के पांव तले धरती खिसक गयी । बताने लगी वह कि इसी लिये यह हमसे मुह छिपा रहे थे । मैं भी कहूं कि इतना सारा पैसा आया कहां से कि मकान आसानी से बन गया । हाहाकार मच गया परिवार की जिन्दगी तबाह हो गयी । रमेश ने मोबाईल नंबर दिया । पी सी ओ से बात करने पर फोन दूसरी बीबी ने  उठाया और कहा -- मै राहुल की दूसरी बीबी बोल रही हूं ....। वह घर पर नहीं हैं ..।कोई काम हो तो बता दीजिये मैं बता दूगी । फोन पर ही तू-तू ,मैं-मैं शुरु हो गयी ।उसने कहा-- जो आप के यहां घर बना है वो मेरे ही पैसे का बना है........। मीरा बेहोश हो गिर पड़ी....।

Monday, October 19, 2009

इन बन्धनों से ..........!

नारी.......
त्याग और उत्तरदायित्वों से सराबोर
परंपरायें भी सिर चढ़ के बोलती हैं
हां तुम्हें नहीं मुंह मोड़ना
बरकरार रखना है अपनी परंपराओं को
बरबस ही कैसे बच सकती है
सामाजिक सरोकार
अपनी संपूर्णता लिये
आच्छादित हो जाते हैं
विरोध का स्वर छिप सा जाता है
नहीं निकल पाती आवाज
मुक्त कर दो हमें
इन बन्धनों से ..........!!

Saturday, October 17, 2009

आईये दीपावली मनायें....!

आईये दीपावली मनायें !
प्राकृतिक और पारंपरिक ढंग से
कम से कम
एक दिन साल में ऐसा हो
जिस दिन
घर- आंगन रोशन हो
कृत्रिम रोशनी से नहीं
पारंपरिक घृत व तेल के दीयों से
आतिशबाजी हो
पटाखों की नहीं
सार्थक विचार - अभिव्यक्ति की
गूंज उठे जहां सारा.....।

                                                              ( शुभ दीपावली )

Thursday, October 15, 2009

कहां जायेंगे अरमान...

माता पिता के अरमानों में
लग जाते हैं पंख
बड़ा ही विशाल फलक
हो जाता है निर्मित
जब नन्हा सा बालक
स्कूल जाना शुरू करता है
पिता हर जगह से खर्च में
करता है कटौती
मां घर का बजट है सुधारती
कि कहीं से कोई कमी ना रह जाय
हमारे अरमान तो धूल धूसरित हो गये
बच्चे के अरमानों के पंख न कटें ।

बच्चा अब बड़ा हो चला है
किशोर हो गया है वह
लग गयी है हवा
मादक पदार्थों की
सोहबत का असर जो है
क्या पढ़ाई - क्या लिखाई
अब तो ये डिस्को जाते हैं

कहां जायेंगे अरमान
माता पिता के
उनकी बुराई इतना कहर ढायेगी
क्या पता
बिगाड़ दी बुढ़ौती

वह माता - पिता जिसने जन्म दिया
वही सोचते हैं
जन्म ही क्यों दिया ऐसे बच्चे को ।

Wednesday, October 14, 2009

उसके उड़ानों के कोई पंख न काटे....

एक नारी
अपनी ही बिरादरी की
कैसे हो जाती है दुश्मन
शुरू हो जाता है
अत्याचारों का सिलसिला..
एक, दो,तीन ही नहीं अनेकों
प्रताड़ना है कि अपना स्वरूप बदल-बदल कर
आ जाती है सामने
रुकने का नाम ही नहीं लेती
शायद वह भूल जाती है
उसने भी लिया होगा
मां के ही कोख से जन्म
पली बढ़ी होगी
ब्याही गयी होगी
पिया के घर
संभव है
उसके साथ हुआ होगा भेद-भाव
क्या उस भेद-भाव का बदला
भावी पीढ़ी से लिया जाना
कहां तक उचित है ?

अब तो महिला सशक्तिकरण की बात चल रही है
हर मां को भी आना होगा आगे
ना हो भेद-भाव
बेटी के जन्म पर
गाये जांय सोहर
दादी अम्मा बलैया लें
घर में बाजे ढोल
मनोदशा के विकास में ना हो वह कुण्ठित
वह भी पढे़ उसी स्कूल में
जहां उसका भैया पढ़ता है
उसके उड़ानों के कोई पंख न काटे
जीये अपना जीवन करीने से ।

Tuesday, October 13, 2009

आओ ! बातें करें.....

आओ ! बातें करें
आज क्यों नहीं है सुख-शान्ति ?

आओ ! बातें करें
कितना अस्त-व्यस्त है जन-जीवन ?

आओ ! बातें करें
इतना क्यों हाहाकार मचा है ?

आओ ! बातें करें
अरमानों ने क्यों दम तोड़ा है ?

आओ ! बातें करें
इन्तजार की घड़ी इतनी लम्बी क्यों है ?

आओ ! बातें करें
दरस को प्यासे नयन क्यों हैं ?

आओ ! बातें करें.....!

Monday, October 12, 2009

समय की तूलिका से........!

जीवन का एक-एक पल
समय की तूलिका से
रच रहा अप्रतिम इतिहास
जब भी पलट कर देखता हूं
नित अधुनातन हो रहा
अतीत की एक-एक ईंट से
चुनी दीवारों पर
अरमानों के छ्त
न जानें कब पड़ेंगे
विचारों के कपाट
संवेदनाओं के वातायन
कहीं ढूंढते ने फिरें
अपनी पहचान को
यही सोच कर हैरत में हो जाता हूं
आशा - निराशा के बीच
अन्तराल का तनाव
कहीं भटका न दे
हां !
शायद  इसीलिये
पल प्रतिपल
बुनता हूं ऐसा ताना-बाना
विवेकी होकर
कहीं इतिहास का रंग - रोगन बिगड़ ना जाय ।

Saturday, October 10, 2009

......सभी पूर्णांक हो जाते हैं नतमस्तक

जब तुम्हारी उपस्थिति होती है
अनोखा पर्यावरण
निर्मित हो जाता है
सभी पूर्णांक हो जाते हैं नतमस्तक

उसमें नहीं होता
ओजोन छिद्र का प्रभाव
नहीं होती है मात्रा
आर्सैनिक की पानी में
नहीं चिन्ता घटते जल स्तर की
नहीं है विषाक्त गैसों का प्रभाव
और कुछ भी नहीं होता क्षत-विक्षत......!

वहां
वह सब कुछ है
जिनसे मिलती हैं
अनन्त खुशियां
स्वच्छ वातावरण
चंहुदिश हरियाली
पक्षियों का कलरव
जिस जहां में यह सब हो
उसकी रचना कैसी होगी
तुम्हारे अंकेक्षण में
सभी पूर्णांक हो जाते हैं नतमस्तक
कहां और किसकी होगी परीक्षा ।

Thursday, October 8, 2009

...साथ ही भूल सुधार के लिये भी

अस्वस्थता
गजब का अवकाश है
चेतन अवचेतन से परे
बस गुजरना भी
चिकित्सकीय परीक्षण से

अस्वस्थता से
स्वास्थ्य-लाभ की यात्रा में
बड़े सरोकार हैं
और पैरोकार भी
बन जाता है स्वास्थ्य-लाभ
एक उत्सव-सा
इस भागमभाग से
कुटुम्ब और समाज
ऐसे अवसर पर
यथोचित भागीदारी से नहीं चूकता
संभव है कि यही सामाजिक आत्मीयता हो
समरसता के लिये
सामंजस्य के लिये
सदभाव के लिये
और साथ ही भूल सुधार के लिये भी ।

Tuesday, October 6, 2009

हां सर्वस्व मेरे.......!

सर्वस्व मेरे !
तम छंटा..
हूं मैं तुम्हारे
आलोक में ।

क्या है ...
निजशेष
उठा लिया है अपनी गोद में
तुम्हारी दृष्टि का सावन
मुसलाधार है या मद्धम
ज्ञात अब क्या बचा है ।

तुम्हारे आशीर्वचनों ने
समूचे दुःखों को हर लिया ...!

हां सर्वस्व मेरे.....!

Sunday, October 4, 2009

ईमानदारी और आस्था ने क्या दिया उसे

आज उसके घर में चूल्हा नहीं जला
हांडी बर्तन सब कोसते रहे
अपने को
खैरात में मिला अनाज
लौटा जो दिया था...!
ईमानदारी और आस्था ने क्या दिया उसे
सिवाय आशा के
ढिबरी भी ढुलक गयी
मां का आंचल भी जल गया ।

बच्चों ने भी कहा -
बाबू को कल काम जरूर मिलेगा
मां का कलेजा मुंह को आ गया
क्या समझदारी और बीच के रास्ते की भावभूमि
आभाव में ही पलती है
लाचार बाप भी क्या कर
सुबह का इन्तजार
क्या नरेगा क्या आम मजदूरी
सबने न्याय किया है .....?
अमीरी और गरीबी की
यह खाईं क्यों नहीं पटती
बस कागज पर रिकार्ड ही सुधरेंगे ।

Saturday, October 3, 2009

हार जीत का मोल नहीं......


हार जीत का मोल नहीं
बस खेले जा रहे हैं बच्चे
ये छक्का
ये चौका
एक रन
दो रन
ये रहा तीन
अब तेरी बारी
अब मेरी बारी
आउट हुआ तो क्या हुआ
फिर से खेलेंगे
रन बना के  छोड़ेंगे ।

इन्हें नही मतलब
रिकार्डों से
आइ सी सी से
हार जीत से
इनका खेल तो बस
आनन्दोत्सव  है......!



                                                               (चित्र गूगल से साभार)

Friday, October 2, 2009

सांझ बिहान की यात्रा में...

सांझ बिहान की यात्रा में
अनेकों पड़ाव
रात्रि
रात्रि के पहर
अगला चरण भोर का
ब्रह्ममुहूर्त
पक्षियों का कलरव
मानस को झंकृत करने को आतुर....!
सूरज की किरणें
नित नयेपन को आमंत्रण दे रही हैं ...!

Thursday, October 1, 2009

अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल.......!

कहते हैं
गत कर्मों का फल
यहीं मिला करता है
शायद यह सच भी है !

प्रकृति बार बार
सचेत कराती है
आओ !
अपने साथ हो रहे घटित से
सबक लो....!

अहंकार में मदमस्त मानव
अर्थ और काम में मस्त हो
खुद को लुटते देखकर भी
होश में जाने कब आये
क्या पता........?

उसे संजीवनी तो बस
अर्थ ही है
अर्थ का हांथ से फिसलना
अपने समानधर्मी गति से हो
यह
सार्थक अर्थों वाली होती है
और जब यही फिसलन
असमानधर्मी हो जाय
सारे समीकरण पल भर में बदल जाते हैं ।

फिर
अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल
कितना रह जाता है....!

Tuesday, September 29, 2009

खिड़की से आकाश ......!

खिड़की से आकाश
अपने सीमित फलक वाला दिखता है
क्षितिज का भी अपना पता नहीं
यह बोध कब होगा...!

ऐसा क्यों होता है
कमरे में बैठ कर
सामान्य चर्चाओं में नुक्ताचीनी
आकाश ऐसा है
आकाश वैसा है
खुद को आवरण में रखकर
बेहतर अभिव्यक्ति की अपेक्षा संभव है....?

किसी भी विचार अभिव्यक्ति के पीछे
देश,काल,वातावरण के अनुसार
काल,पात्र,विवेचन
प्रभावित होता रहा है ।

आकाश के विस्तृत फलक को
खुले मैदान में आकर ही
अनुभव किया जा सकता है
कि यह अपने आवरण में सर्वस्व समेटे हुए हैं ।

क्षितिज की परिधि में
आमूल-चूल रूप में
एक छोटी सी दुनियां है
जिसमें अपना संसार बसता है
और
इसके पार कल्पनालोकी दुनियां....!

Monday, September 28, 2009

राम-राज्य की परिकल्पना .....!

विजयादशमी
आश्विन शुक्ल की दशमी
अपने अमरत्व को लेकर
सदियों से इतरा रही होगी.....!

भगवान राम के
अधर्म पर धर्म की
असत्य पर सत्य की विजय
और
गृह-नगर-आगमन का श्रेय
मुझे ही मिला !

जायज भी है
जिसके हिस्से
लग जाय इतना बड़ा श्रेय
वह अपने आगत को लेकर भी
सुनिश्चित होगा ही...!

मनाना विजयादशमी को
उचित है
राम रावण युद्ध और राम की विजय
एक बड़े जनसैलाब के समक्ष मंचन
आमंत्रण है हमें कि
जीवन में सत्य के मार्ग पर
सदैव ही चलकर
सही संस्थापना होती है !

सदियों से चले आ रहे
इस पर्व का प्रभाव
जनसामान्य में
सार्थक हुआ होता
राम-राज्य की परिकल्पना
साकार नहीं होती....!

Saturday, September 26, 2009

हाईकू.....!

भोर हुआ धरती पर
"मानस"
जाग उठा ..!


तुम न थे
पर
तुम्हारी याद साथ - साथ थी..!


तुमसे रूखसत हुआ
तो
होश आया..!


स्वप्न
सलोना हो
तेरे जैसा..!

बचपन का
भोलापन
यहां ईश्वर बसता है..!

Friday, September 25, 2009

बादल मंडरा रहे हैं...!

बादल मंडरा रहे हैं
खुशियों के
जाने कब बरस जांय
कर दें सराबोर
इस पूरे आभामंडल को ।

रोम रोम हो जाय
पुलकित
तुम्हारे आने की
तमन्नाओं का सफर
जल्द ही रंग लायेगा ।

ऐसा लगता है
मंजिल अपनी ओर
सायास ही
रंग बिरंगे स्वप्न लिये
आकर्षित कर रही है ।

तुम साथ हो तभी
सारी खुशियों की रवानी है
आ जाओ जब
सब कुछ बेहतर सा दिखने लगता है-
सुबह खिली खिली सी..
शाम रंगीन और भी बहुत कुछ..!

साथ ही मूल्यांकन करता हूं जब
हर रात सोने से पहले
दिन भर का
हर क्षण मूल्यवान सा दिखता है ।

Wednesday, September 23, 2009

फूल जाते हैं हांथ पांव.....!

दिन -ब - दिन
समस्याएं साथ नहीं छोड़ रहीं
इस जंजाल से मुक्ति पाने का
अनूठा मार्ग है
समस्या के साथ ही साथ ।

जितनी गहरी समस्या
उतनी मोटी रकम
घूस के रूप में
समस्या हल हो जायगी
बिना किसी योग्यता के ।

मोटी रकम से निर्धारित मानक
क्षण भर मे
सारे मानक खुद - ब - खुद
पूरे हो जाते हैं...!
और हो जाते हैं सफल ।

कुछ लोग !
देखते रह जाते हैं वह
जो जानते हैं उनकी वास्तविकता
हांथ पर हांथ धरे रह जाना
बन जाती है उनकी नीयति...!

देख कर यह सब
फूल जाते हैं हांथ पांव
हृदय में चलने लगते हैं घूंसे
धाड़ - धाड़ बजने लगता है वह ।

क्या मेरी सारी ऊर्जा
जो लगा दी मैने
एकेडमिक रिकार्ड बनाने में
उसका कोई मोल नहीं
क्योंकि नही दे सकता मैं
इतना सारा घूस .....।

Tuesday, September 22, 2009

कौन कहे जा करके - उस मां से .....!

दुर्घटनाए
जानलेवा न हों
ढाढस बाधा जाना ...!
बात समाझ में आती है ।

हाईवे पर छः घण्टे के अन्दर
छः छः मौतों ने
हिला कर रख दिया
सड़क पर वही चल रहे होते हैं
जिनसे न जाने कितनों के
अरमान जुड़े होते हैं ।

किसी मां ने लगाया होगा तिलक
जा बेटा ! तुझे आज अवश्य मिलेगी सफलता
बगल में परदे से झांक रही पत्नी
कितने अरमानों से की होगी मंगल कामना
हे ईश्वर ! अब हमारा चमन भी खिल उठे
चौखट पर खेल रही बिटिया ने देखा होगा.....!
अबकी पापा रेलगाड़ी जरूर ला देंगे
खूब चलाउंगी मै

कौन कहे जा करके
मां से !
पत्नी से ! और
उस नन्हीं सी बिटिया से ।

और कैसे ?
कि तुम्हारा ........!

अनायास, असमय, अकारण
हंसी अच्छी नहीं लगती....!

फिर यह मौत....?

Monday, September 21, 2009

झंकृत स्वर....!

झंकृत स्वर
गुंजायमान हो उठा
एक बार फिर
लम्बे अन्तराल के बाद ।

तुम ठीक उसी तरह आज भी दिखे थे
सादगी के आभूषण
आज भी सुशोभित हो रहे थे
आत्मविश्वास से भरा देख
प्रमुदित हो रहा था मैं ।

तुम्हारा झल्लाना
अब
मधुर मुस्कान में
तब्दील चुका था...!

शारदीय नवरात्रि में
संयोगात अलग - अलग पंक्ति में
साथ ही आशीर्वाद जैसे
वर्षों से चली आ रही परंपरा
सी हो गयी हो...!

ठीक उसी सिद्धान्त की तरह
जैसे-
"आपतित किरण, परावर्तित किरण और अभिलंब
तीनो एक ही बिन्दु पर होते हैं ।"

समय की गति ने रफ्तार ली
लेकिन
हम दोनों वैसे ही हैं
जैसे होते हैं नदी के किनारे
जिन्हें नहीं होना साथ साथ
बस लहरें हैं प्रेम की
जिससे होता है भावास्पर्श
हमारा - तुम्हारा...!

Sunday, September 20, 2009

कलुषित हो जाता है मन....!

कलुषित हो जाता है मन
दिन ब दिन
प्रवंचनाएं नये रंग ला रही हैं
जब भी कुछ नया करने को सोचता है मानव ।

जाने क्यों
सींखचों में जकड़ा सा पाता है
जब भी विचारधाराएं
पंख पसार उड़ना चाहती हैं
लगता है जैसे
पहले से ही कोई जाल बिछाये है ।

राहों के दरवाजों पर
सांकले लगा दिये जाते हैं
घुट कर दम तोड़ देना
जैसे नीयति सी हो गयी है ।

बार बार यही सुनना
कथित संभ्रांत लोगों से
अरे नहीं!
यह हमारी परंपराओं के खिलाफ है
इस भाव का प्रतिध्वनित होना
धुधले आवरण में
ढंक लेता है ।

क्या इन अतृप्त आत्माओं से
साहचर्य दे पायेगा उचित दृष्टिकोंण....!

Saturday, September 19, 2009

क्षणिकाएं...!

तुम न थे
तो जिन्दगी न थी
तुम आये जिन्दगी में
तो रौनक आयी ।

तुम्हारे सामने
कुछ कह भी न सके
दिल की बात
दिल में ही रह गयी !

तुम्ही बताओ
तुम्हारे वास्ते के सिवा
अपना
भी कोई रास्ता था...?

मेरे मालिक !
तु मुझे बेरुखी न दे
तेरे दर से
ऐसे भी कोई जाता है !

तुमने देखा
तो मुंह फेर लिया
हम तो आये थे
तेरा होने को !

Friday, September 18, 2009

विकलांगता का होना....!

विकलांगता का होना
किसी अभिशाप से कम नहीं
उसके भेद
चाहे जिस रूप में हो
दुखदायी ही होते हैं ।

शारीरिक विकलांगता हो
वह भी आंशिक
बात उतनी नहीं बिगड़ पाती
जितनी पूर्ण से होती है ।

ऐसे में
कुछ कर गु्जरने का साहस यदि हो भी
अनेक कष्टों को सहना होता है उसे
साथ ही उपेक्षा भी ।

विकलांगता जब मानसिक हो
स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है
शारीरिक विकलांगता में कुछ संभव भी है
और इसमें चेतन - अवचेन का कोई भेद नहीं ।

वाह रे ! नियति
अजीब है यह खेल.....।
लोग इसे पागलपन क्यों समझते हैं
अभिशप्त होने के पीछे
उसका क्या दोष....?

Thursday, September 17, 2009

दांव - पेच से दूर होता है बचपन...!

दांव - पेच से दूर होता है बचपन
नहीं फिकर कहां क्या हो रहा है
जो सामने है
वही अपनी दुनिया है |

उसे क्या पता
बुद्धि बड़े रंग दिखाती है
अपने - पराये , हमारा - तुम्हारा
और भी बहुत कुछ |

खेल - कूद में गुस्सम - गुस्सा
लम्बी अवधि का नहीं होता
यहां अभिमान टकराता ही नहीं
इसी लिये मेल - मिलाप में देरी नहीं होती |

आज हम युवा हैं
बडी़ कूटनीति से रहना हमारा धर्म सा हो गया है
न हों आप ऐसे
सामाजिक मोह पास
आपको अपने निमित्त बना कर रख देगा
जीवन के उस मोड़ पर
जब आप अपनी दिशा निर्धारण कर रहे होते हैं |

यही लोग जो आज पसंद कर रहे हैं
आने वाले समय में
स्थापित नहीं किया खुद को
निन्दा करते देर नहीं लगती
अरे...!
कुछ नही कर रहे हो ....!

Wednesday, September 16, 2009

मेरे जीवन का सर्वस्व...!

हमारा और तुम्हारा साथ
अभी से नहीं
जनम - जनम से है
तुम्ही कहते हो...!

तुम्हारे चेहरे की अकुलाहट
नहीं समझ में आती
क्यों बेचैन हो उठते हो
विचलित हो जाता है मन
अविवेकी हो जाता हूं ।

अरे !
तुमसे अलग कैसे हो पाऊंगा
अलग होने का भाव जुड़ा है-
लोभ, मोह, मद,से ।

तुम और हम
आसक्ति के वशीभूत नहीं
प्रेम बांधता नही हमें
मुक्त करता है
उन समस्त प्रवंचनाओं से
जो हमारे मार्ग में बाधक हैं
कैसे समझाऊं तुम्हें
मेरे जीवन का सर्वस्व
तुम्हारे निमित्त है...!

Tuesday, September 15, 2009

सूर्य कभी अस्त होता है क्या....!

बचपन में गुरु जी ने
रटा डाला--
बेटा !
सूरज पूरब में उगता है
पश्चिम में अस्त होता है
मैने भी देखा
हां यह सच है ।

समय अपने गति से आगे बढ़ा
बड़ा हुआ मैं
सोचने समझने का स्तर
समानान्तर बढ़ता गया ।

विज्ञान और मानविकी के अध्ययन से
कुछ और ही बातें सामने आयी
मन अन्तर्द्वन्द से भर उठा -
अरे ! यह क्या ।

सूर्य कभी अस्त होता है क्या
ये हमारी पृथ्वी की गतियां हैं
जिससे उसके उदय और अस्त होने का भाव
निश्चित हो जाता है जेहन में ।

जिसने हमें ककहरा सिखाया
उस गुरू जी के प्रति
श्रद्धा भाव के सिवा
शंका भाव का प्रश्न ही नहीं
शैक्षिक विरासत की नींव
उन्होंने ही रखी तो थी....।

Monday, September 14, 2009

हिन्दी दिवस तब्दील हो....!

हिन्दी दिवस
हमारी हिन्दी परंपरा के बोध मात्र के लिए  ही नहीं
जिससे कि हमारी शब्दावलियां , साहित्य भण्डार,
विरासत में मिले ऐसे साक्ष्य
और हमारी मातृ-भाषा
अपने इतिहास को सशक्त बनाते हों

हमारे पुरोधाओं ने
अपना सर्वस्व न्यौ़छावर कर
गरिमामय संकल्पना से
स्थापित किया इसे
इनकी प्रेरणा
सिमट कर न रह जाय
हिन्दी दिवस मनाने मात्र में-----
बैनर लगाया
किसी को मुख्य अतिथि बनाया
पचीस - पचास के बीच में
स्थितप्रज्ञ हो
ढेर सारी कार्य योजना का संकल्प लिया
और फिर
अपनी - अपनी डफली
अपना - अपना राग

सच तो यह है
अब बहुत हो चुका
क्या बचा है खोने को 
हिन्दी दिवस तब्दील हो--
हिन्दी सप्ताह में
हिन्दी माह में
हिन्दी वर्ष में
हिन्दी दशक में
तब तक जब तक कि
रग - रग में हमारी मातृ-भाषा
सर्वश्रेष्ठ रूप में स्थापित न हो जाय ।

Sunday, September 13, 2009

मां स्तन-पान भी न करा सकती थी.....!

बच्चा रो रहा था
भूख से
निर्माणाधीन सड़क के किनारे
अस्तित्वविहीन पटरी पर
चिलचिलाती धूप में ।

घास - फूस के बीच
मां स्तन-पान भी न करा सकती थी
सड़क निर्माण जो हो रहा था
बड़े - बड़े गिट्टकों के बीच
धाड़ - धाड़ की आवाज
उसे चुप भी न करा सकती थी ।

मां निश्चित समय से ही छूटेगी
चिल्ला - चिल्ला कर रोना
नहीं देखते बनता उसे
कैसे छूट पाती वह ।

शाम से पहले
बच्चे का रोना
मां का अपने भाग्य पर रोना रोने से
क्या शिशुत्व - मातृत्व को
कोई अन्तराल निश्चित नहीं

भूख तो नहीं मरी जाती......।

Saturday, September 12, 2009

धरती सा धैर्य का परिचय देते हो....!

तुम अनुपम हो
सृष्टि के सभी तत्व
धरती, आकाश, अग्नि, जल,हवा
सबने तुम्हें रचने में
अपना सर्वस्व उड़ेल दिया
तुम्हारे व्यक्तित्व में
ये सभी तत्व अपनी पूर्णता लिए
विद्यमान हैं
धरती सा धैर्य का परिचय देते हो
जब भी परिस्थितियां  अनुकूल नहीं होती
कहीं भी तुम्हारी उपस्थिति होती है
पूरी महफिल में
आकाश सा छा जाते हो
संयोग का ऐसा मिलन
क्षितिज पर जैसे धरती और आकाश
मानस विचरण करने लगता है
मुक्ताकाश में
तुम्हारी वाणी में ऐसा प्रवाह
जो किसी हवा के बेहतर गुणधर्मों से कम नहीं
यह तत्व भी शोभायमान हो जाता है
तेजमय मस्तक यदि रूद्र  रूप में आ जाय
आभामंडल में कुछ भी असंभव नहीं
ऐसे परास्त करते हो जैसे
परास्त करना हंसी-खेल हो
इन सबके साथ
नीर ..अपनी शुचिता लिए
झील सी नीली आंखों मे विद्यमान है
दृष्टि जिसपर पड़ जाय
कर दे उसे पावन
निर्मल मनभावों से ........।

Friday, September 11, 2009

कुर्सी व कलम की रूह हिल गयी होगी...!

कलियुग के गुण धर्म का
एक नया संस्करण सामने है
प्रकृति का ऐसा अनगढ़
जिसे  कभी प्राकृतिक सुख न मिला
जीवन के रंगो को जाना पहचाना नहीं
आज ऐसी कुर्सी पर है
जहां कभी विलक्षण प्रतिभा के धनी
सुशोभित हुआ करते थे
दिया था उन्होंने कितनों को अभयदान
उसी कुर्सी पर बैठ कर
यह
अपनी दोहरी भूमिका निभा रहा है
खुद को सच का चोंगा पहना कर
घात-प्रतिघात के निर्णय निर्माण में
दर-ब-दर तूलिकाएं तोड़ रहा है
खुद जिसके कर्म का कौमार्य
उसे चिढ़ा रहा हो
उससे न्याय की कल्पना
जो आदर्शोन्मुख हो
शायद अनुचित है
उसके न्याय में सिवाय स्वांग के
और क्या होगा
ऐसे फैसलों को अनुभव कर
कुर्सी व कलम की रूह हिल गयी होगी
तरस आया होगा उसे अपने आप पर ।

न सह सके ऐसे व्यक्तित्व का बोझ वह
न देख सके अपने इतिहास को कलंकित
शायद इसी लिए नियति के खेल ने
कुर्सी को कबाड़खाने भेज दिया
उसपर पुराने होने का आरोप लगाकर........!
आज उसका स्थान नयी "चेयर" ने ले लिया था ।

Thursday, September 10, 2009

आज तुम यहां होते ..!

आजकल हर लम्हा
सवाल पूछता है
कितने बदल गये हो तुम
समय ऐसा करवट लेगा
तुम्हारे जीवन से
अवकाश के क्षण
भी बार- बार पुकार कर
अपना हक मांगेंगे
और तुम उन्हें क्या दे सकोगे ।

पिछले पायदान के पदचिह्न
साथ गुजरे एक-एक पल
का हिसाब करने को बेकरार हैं
कहते हैं
अरे ! मैने ही साथ दिया था
उस वक्त जब तुम्हारी
अपनी कोई पहचान न थी
कदम - कदम पर हौसला दिया
और बेहतर संयोग भी
नहीं होता न्याय तुम्हारे साथ
आज तुम यहां होते ........!

Wednesday, September 9, 2009

भारतेन्दु जी के जन्म दिवस पर

राम भजो राम भजो राम भजो भाई ।
राम के भजे से गनिका तर गई,
राम के भजे से गीध गति पाई।
राम के नाम से काम बनै सब,
राम के भजन बिनु सबहि नसाई॥
राम के नाम से दोनों नयन बिनु,
सूरदास भए कबिकुल-राई।
राम के नाम से घास जंगल की,
तुलसीदास भए भजि रघुराई॥
                                       
                                    ( भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत - अन्धेर नगरी से)                 

Tuesday, September 8, 2009

पारदर्शिता - अपारदर्शिता के बीच.......!

बावरा मन
बड़ा भोला है
नहीं रखता याद
उसके साथ क्या घटित हुआ...।
 नहीं पड़ा इसके पचड़े में
संभव है दूरदर्शी हो
दुनियां के मकड़जाल का  क्या पता इसे
अतीत का सुख-दुख
और वर्तमान में सहभागी बन कर
सच को बार- बार परेशान देखकर भी
अपना धैर्य नहीं खोता
किसी की निष्ठुरता पर
बयानबाजी नहीं करता |
दूरदर्शिता की पराकाष्ठा
अपने समस्त अर्थों में विद्यमान है यहां
सारे चिन्तन से परे
अजीब दुनियां बसती है......!

चुक जाते हैं गणित के भेद
पारदर्शिता - अपारदर्शिता के बीच.......!

Monday, September 7, 2009

विलक्षणता पांव पसारने लगती है....!

अकल्पनीय
घटनाओं का घटित होना
विस्मयकारी अनुभव लेकर आता है
इसके पीछे नियति का खेल
किस सीमा तक है ...?

मानस पटल पर
स्वतः दृश्यावलियां उद्भूत हो जाती है
अंकित करना न चाहते हुए भी
बच नहीं सकता है कोई ।

विलक्षणता पांव पसारने लगती है
उसके शब्दकोश में
गतिरोध जैसा शब्द नहीं
पल भर में
स्नेह निर्झर उन्मुक्त हो
स्निग्धता लिए हुए
काव्यालोक से होते हुए
मंत्रमुग्ध कर देती हैं ।

घनीभूत पीड़ा काफूर हो जाती है
उस स्वप्नलोकी दुनियां में
जहां कोई अपने पराये का भेद नहीं.....!

Sunday, September 6, 2009

अभी जीना है...!

मुझे अभी जीना है कविता के लिए नहीं
कुछ करने के लिए कि मेरी संतान  मौत कुत्ते की  न मरे
मै आत्महत्या के पक्ष में नहीं हूं तो इसलिए
कि मुझसे पहले मरें वे जो कि
मेरी तरह मरने को बाध्य हैं
कुछ नहीं करता हूं मृत्यु के भय से मैं
सिर्फ अपमान से उनको बचाता हूं
जिन्हें मृत्यु आकर ले जायगी
दबे पांव आहट को सुनता हूं
और उसे शोर बनने नहीं देता हूं
हां मैं कुछ करता हूं जिसका
उपचार से कोई संबंध नहीं


                                     (‘रघुवीर सहाय‘ की कविता)

Saturday, September 5, 2009

शिक्षक दिवस पर..

शिक्षक दिवस पर...
एक पत्र उन शिक्षकों के नाम
जिन्हों ने जहां को रोशन करने में
अपना सब कुछ लुटा दिया ।


परम आदरणीय,
                       सादर...!
                                    आपके योगदान को
                                    कैसे भूलेगा यह संसार ?
                                    क्या आपको एक दिवस ही काफी है ?

                                    जब पुरस्कृत होता है छात्र
                                    उसके पार्श्व में और कौन है
                                    आपके सिवाय,
                                    किसे मिलता है पुरस्कार,
                                    कौन होता है हर्षातिरेक से पागल,
                                    किसका उल्लास छूता है आकाश -
                                    छात्र का ? या आपका ?
                                    हर उस रोज होती है
                                    स्थापना ....!
                                    शाश्वत सच की
                                    जिस तक पहुचाने का माध्यम
                                    अगर कोई है तो वह....
                                   कोई और नहीं शिक्षक ही है.......!
                                                                                    सादर प्रणाम......!

Friday, September 4, 2009

मेरे कुछ मुक्तक

सुबह से शाम तक बैठा रहा
तेरे इन्त्जार में
तुम हो
कि आये और चल दिये ..।


मुद्दत बाद
तुम्हारा दीदार हुआ
चलो अच्छा हुआ
एक बार हुआ...


हम मुसाफिर हैं
ये राह हो न हो
रहगुजर तो है
साथ चलते रहेंगे...।


तुम्हारा खयाल आया
तो यादों के साथ हो लिए
साथ तुम तो न थे
तुम्हारी याद ही सही..।


हम तो आये थे
कुर्बान होने को
यहां देखा तो
तुम विदा हो रही थी  ...।

Thursday, September 3, 2009

सब कुछ पहले सा हो गया...

मैने देखा
एक आदमी का जीवन
कैसे बदलता है
समय ने जख्म कैसे भर दिया
कभी उसकी चित्कार ने
झकझोर कर रख दिया
और आज
पुन: आस्थावान है
उसमें जीवन को लेकर
फिर से आस जगी है
नयी नयी बातें करता है वह
सभी
सब कुछ पहले सा हो गया...

शायद यही समय की मांग है..?
निराशा ने दम तोड़ दिया
आज आशावान हो गया है
अतीत के दुख दर्द
गये जमाने की है बात
भावप्रवणता ने उंचाई पा ली है

सब कुछ पहले सा हो गया....!

Wednesday, September 2, 2009

सागर से लहरें उठती हैं

सागर से लहरें उठती हैं
साहिल की ओर
निरन्तर बढ़ने को उत्सुक
इनकी उमंगें
शान्त पवन को झकझोरती हूई
निर्द्वन्द, निर्लिप्त निश्चेष्ट भाव से
पुकार रही हैं.................।
आओ......!
मुझमें निहित अन्तष्चेतना के साथ
यात्रा करें उस ओर
जहां बसती है दुनियां
रंग बिरंगी
प्रकृति के कुछ अद्भुत नजारे।

इन नजारों को
निरखने को तत्पर
हमारी आंखें
करने को अंकित आतुरता से.....!
अपने मानस पटल पर
रच जाय ऐसा आयाम
जो दे सके
अकल्पित, शाश्वत, निर्मल ,पावन
हृदयंगम हो जाय
ऐसी खुशियां
सबके बीच सौहार्द्र..........!

Tuesday, September 1, 2009

समय भी अब धीरे-धीरे चलने लगा

कब से देखता रहा तुम्हारी राह
तुम ना आये
तुम्हारा न आना
समय की गति को भी परिवर्तित कर दिया ।

समय भी अब धीरे-धीरे चलने लगा
आज तुम न सही
तुम्हारी यादें तो हैं
बीते हुए कल का
जब भी पलटता हूं
एक-एक पन्ना
तुम्हारे साथ जिया एक-एक पल ।

हरा हो जाता है क्षण-क्षण
और फिर  खो जाता हूं
उस पल में
कुछ भी याद नहीं रहता
कि और भी कुछ करना है।

तुमने दिया था एक सम्बल
हमारे स्वत्व को
और पुन: लौटा मुझमें आत्मविश्वास ।

Monday, August 31, 2009

कैसे सह लेते हो तुम

तुम प्रकृति की अद्भुत रचना हो
तुममे  विलक्षणता के सारे गुण हैं
धन्य हुआ होगा ईश्वर भी
धरती पर तुम्हें भेज के
तुम्हारी कार्य शैली
चातुर्य, व्यस्तता,
हर फन में पारंगत होना
साथ ही
सबको खुश रखने का गुण
मन मोहक  है

हम भी कायल हैं तुम्हारी
जीवन शैली के
कैसे कर लेते हो तुम
यह सब
कैसे सह लेते हो तुम
यह सब
सबकी सन्तुष्टि बीच
कहां से चुरा लेते हो
समय
अपना अपनेपन के लिये

तुम्हारा जीवन
एक रहस्य से कम नहीं......!

Sunday, August 30, 2009

क्या लड़कियों से नहीं संवरता है जीवन

कल तुम्हें देखा
एकटक निहारते हुए
तुम्हारी आंखों मे
गुजरे हुए कल की तस्वीर
स्पष्ट दिख रही थी
अब तुम लड़की से स्त्री हो चली थी
तुम्हें देख के ऐसा लग रहा था
मानो तुम्हारे मनोभाव
अपने आप को कोस रहें हो
हमें देख कर साथ-साथ।

अगर मैं भी लड़का होती
मुझसे जीवन में कुछ भी न छूटता
न मां-बाप का घर
ना ही सखि-सहेलियां
सब कुछ पास होते
अब तो पिया का घर
ही अपना आशियाना है।

मां ही क्यों कहती है......
वंश तो लड़के चलाते है
लड़की को पराये घर जाना है
उद्विग्न हो उठता है मन।

शायद मां  भूल जाती है
वह भी एक लड़की ही है
फिर क्यों करती है भेद
क्या लड़कियों से नहीं संवरता है जीवन .........? 

Saturday, August 29, 2009

छान लिया मछुआरों ने

आज संझवत नहीं लगा
कलुआ ने भूख से दम तोड़ दिया था
असहाय हो गये बीबी बच्चे
असहाय जी रहे जीवन में
मंहगाई ने ऐसा मारा
दो जून की रोटी
एक जून की हो चली थी
मजदूरी भी कौन करेगा...?
दो बच्चों की मां के लिए
दाह संस्कार का जुगाड़
किसी पर्वत लांघने  से कम न था
छोड़ लाश के पास बच्चों को
साहुकार के पास 
शादी के पायल के बदले पैसे लेने
अन्तिम कर्म भी सहज न हो सका ।

लालन-पालन,भरण-पोषण,
हो गयी स्व्प्न की बातें
जीवन के अन्तिम सच की ओर चल दी.....
गंगा मईया ले लो अपनी गोद में हमें
वहां भी शरण ना मिला
छान लिया मछुआरों ने
जब मौत भी गले ना लगाए
इस जीने का क्या होगा
कैसे सोच लेते हैं सब .......?
ऐसा जीवन जीने से मर जाना ही अच्छा.....!

Friday, August 28, 2009

धरती का कलेजा फट रहा है

धरती का कलेजा फट रहा है
देख कर चिटकन
धरती का
मानो ऐसा लगता है
इतनी विशाल धरती
जिसका तीन भाग पानी है
उसका पानी पानी के लिए तरसना
गला भर आता है
पर्यावरण असन्तुलन के लिए जिम्मेदार कौन
जितना दोहन हम करते हैं
क्या उसके प्रति वफादार हैं
अन्न-पानी -हवा
जब इसका दायरा सिमटेगा
तो इस जनसंख्या का क्या होगा
कभी अलनिनो कभी कुछ को
कब तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है
नहीं हो रही खेती अच्छी
तब महगांई और भागेगी
आम जनता और धरती के कलेजे में
जमीन आसमान का अन्तर है
जब धरती का यह हाल है
जन जीवन का क्या होगा............?

Thursday, August 27, 2009

अध्ययन और परीक्षाफल की यात्रा में

कक्षा बारह की लड़कियों ने
किया हवन-पूजन
माता रानी के चरणों में
सफल मनोरथ हो
अध्ययन और परीक्षाफल की यात्रा में
सामुहिक रुप से अपने कालेज में
बोर्ड फार्म भरे जाने से पहले
आज इस दौर में
आस्था का इस मार्ग से गुजरना
अत्यन्त सुखानुभूति देता है
मंगलकामना से प्रारंभ
संकल्प है
हम सभी सफल हों
प्रेरणादायी है............!

Wednesday, August 26, 2009

आपका जीवन दर्शन तो है

नियति का खेल
बड़ा अजीब होता है
बच नहीं सकता है कोई इससे
इस जगत में।
जगत भी एक बगिया है
ईश्वर इसका माली है
इस बगिया का हर अच्छा पुष्प
जिसे वह समझे........
यह अपनी पूर्णता ओर है
सभी पुष्पों में उसे सबसे पहले
तोड़ लेता है
उसके तोड़ने के पीछे
संभव है पुष्प के विकृत होने से बचाने का भाव हो ।

आप नहीं हो हमारे साथ
आपका जीवन दर्शन तो है ......!
                                                                    

                                                                       ( पिता जी की २८वीं पूण्यतिथि पर उनको समर्पित)            
                                                                                               

Tuesday, August 25, 2009

हां ! समय ने दांव दे दिया

मैने देखा
समय ने दांव दे दिया
आज
ऐसा आदमी
जिसने जीवन में किसी के सामने
हांथ फैलाना उचित नहीं समझा
आज वह बिना लाग-लपेट के
पुकार रहा है............
एक ऐसे आदमी को
जो अभी अपनी स्थापना के लिये
दिन-ब-दिन
नये-नये मायने तलाश रहा है
दोनों ने अपना स्नेह निर्झर
ऐसा बहाया
लगा जैसे जीवन सरिता
बह चली
हां ! समय ने दांव दे दिया।

Sunday, August 23, 2009

हरितालिका तीज

आज हरितालिका तीज है
सुना है
माता पार्वती ने इसी दिन
भगवान शंकर की अर्धांगिनी
होने का सौभाग्य पाया
इस परंपरा के अनुसार महिलाएं
रखती हैं व्रत पति के दीर्घायु होने के लिए।

आज की महिला
केवल घर में ही रहने वाली नहीं
कामकाजी भी हैं
उनके लिए यह व्रत
कितना जायज है ?
अब इनकी बराबर की भागीदारी है |
आज का पुरुष
इतना वफादार है क्या ?
इस प्रश्न के आगे
निरुत्तरित हो जाता हूं मैं...............!

Saturday, August 22, 2009

बगिया बहुत उदास है


बगिया बहुत उदास है
कैसे खिलेंगी कलियां
नहीं होगा भवरों का गुंजन
दूर- दूर तक
हरियाली रो रही है
क्या मुझे अब लोग
वाल पेपर,थीम और
नन्हीं तूलिकाओं की से
बनी चित्रावलिओं में ही देखेंगे।

कहीं ऐसा न हो जाय
जीवन और प्रकृति का सामंजस्य
भौतिक सुख सुविधाओं के बीच
असहाय सा हो जाय।

Friday, August 21, 2009

विचार

विचार
मुखरित हो उठते हैं
भाषा में भी जान आ जाती है
मस्तक भी हो जाता है तेजमय
जब
आप हो जांय
कर्तव्यनिष्ठ
और फिर
जीवन
सुखमय
शान्तिमय
भेदभाव रहित हो जाता है.....!

Wednesday, August 19, 2009

जब तुम चाहोगे

सच है
खिलेगा कमल
पंछी गुनगुनाएंगे
कोयल कू कू करेगी
महकेगा चमन
बहेगी हवा
सुहावना होगा मौसम
सब कुछ अच्छा होगा.........


हे ईश्वर !
जब तुम चाहोगे|
.................................................

Tuesday, August 18, 2009

बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की कविता

बांधो न नाव इस ठाँव बन्धु!
पूछेगा सारा गाँव बंन्धु!

यह घाट वही जिसपर हँस कर,
वह कभी नहाती थी हँसकर,
आंखें रह जाती थी फँसकर,
कंपते थे दोनों पाँव,बन्धु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
देती थी सबको दाँव,बन्धु!

Monday, August 17, 2009

सामान्य हुआ मौसम

बारिश आयी
सामान्य हुआ मौसम
जनजीवन खुश हो उठा
आस जगी
अब भी
चलो
रोपाई हो धान की
शायद ईश्वर की यही ईच्छा हो
खेत फिर से लहलहा उठे
अनाज पैदा हो
निजात मिले सूखे से
यही प्रार्थना है
क्यों कि
जब
किसान हो खुशहाल
तभी होगा
देश खुशहाल...।

Sunday, August 16, 2009

बाबूजी की बेटियां

बाबूजी की बेटियां
अब
पापा की बेटियां हैं
बेड़ियां
गये जमाने की है बात
नहीं सिमटा है जीवन
केवल चूल्हे- चौके,राशन-पानी तक
लड़कों से कम नहीं है उनकी उड़ाने
वह भी
बैग टांगे
सायकिल से स्कूटी से बसों से
करती हैं यात्रायें
बेहतर जीवन
जीना
अब
कपोल कल्पना नहीं.....।

Saturday, August 15, 2009

आजादी का जश्न

आजादी का जश्न
मनाने की घड़ी है
उत्सव में सराबोर होने से
स्वतंत्रता सेनानियों को याद
करने मात्र से ही
नहीं संवरेगा अपना देश
आज
समय की मांग है
देश का हर नागरिक
अपने अधिकारों के साथ-साथ
अपने कर्तव्यों को जाने और समझे
तभी हो सकेगी समुचित भागीदारी
देश के प्रति
और
फ़िर होगा.....
विकासशील भारत
विकसित भारत..........।

Friday, August 7, 2009

चुनौतियां हैं सामने

एक बालक देखता है
दुनिया का बावलापन
लोग कैसे आगे बढ़ रहे हैं
इसका प्रश्न उसके जेहन में है
जिसे खोजता फिरता है वह
अपने आस-पास
अपने को भ्रम में पाता है
जैसे जैसे बडा़ होता है
उसका संशय और भी बड़ा हो जाता है

जब तक वह बालक था
मस्त था
आज
वह बड़ा हो गया है
चुनौतियां है सामने
बढ़ रहा है चौराहे की ओर
जहां से खुलते हैं अनेक द्वार
सोचता है
चुनुंगा उसे ही
जो कर दे सफल
पर
यह रास्ता सही है
यह कहना
आज
कितना सही है........।

Thursday, August 6, 2009

सावन भी चला गया

नहीं बदला मौसम
इस बार.......
रिमझिम फुहारें
सावनी बयार
सब
सपनों में ही रह गयी
सावन भी चला गया.......

Monday, August 3, 2009

बालक का हक़

बाल मनुहार
हर बालक का हक है
पर
जब हाँथों में
खेल का सामान
किताबों के बैग
गले में टाई
पानी की बोतल
पैरों में जूते
और भी बहुत कुछ
यह सब न मिले
फिर
वह बचपन
अपने अस्तित्व से लड़ता हुआ
सर पर टोकरी
हाँथों में फावड़ा लेकर
सिसकियाँ भरता
आ खड़ा होता है
मजदूरों की भीड़ में

एक समय था
आने दो आने
अठन्नी चवन्नी
में भरता था पेट
पर आज दस बीस में भी नहीं
भरता है पेट ,
कोई बालक
इससे ज्यादा भी पाता है क्या ?

Sunday, August 2, 2009

प्रेम का एहसास

प्रेम का एहसास
एहसास मात्र ही नहीं है
इसे समझना शायद
सबके बस की बात नहीं है
इतनी आसानी से कोई कह दे
कि "मैं तुमसे प्यार करता हूँ "
यह बात गले से नहीं उतरती
इसका होना तो तब होता है
जब एक हूक सी उठे
जो तोड़ कर रख दे
सारा अभिमान
अपने होने का गुमान
और अपने दिल की बात
आँखों तक आ जाये
भर दे हृदय को -
निर्मल व पावन भावों से ।


चित्र : गूगल से साभार

Saturday, August 1, 2009

संकट के बादल

सड़कें
दिन ब दिन
चौडी़ हो रही हैं
फिर भी जाम से छुट्कारा कहां
संकट के बादल
अपनी कहानी कहते.............

Monday, July 27, 2009

तुम्हारी याद

जब भी दर्द में होता हूं
तुम्हारी याद आती है
तुम्हारा
आम्रमंजरियों के बीच से गुजरना
पगडन्डियों कि उडती धूल
जो तुमसे होकर जाती थी
उसमें
तुम्हारी खुशबु होती थी
समय के पहिए का

रफ्तार पकडना
नहीं भूलता
नंगे पांवों मे कांटो का चुभना
रेल की पटरियों के किनारे
पैरों का फिसलना
तुम्हारा सिसकना
आज भी याद है
कैसे सह पाती थी
जब भी दर्द में होता हूं
तुम्हारी याद आती है..........!

Sunday, July 26, 2009

स्वप्नलोक में

स्वप्नलोक में
और
कल्पनालोक में ही
शान्ति का मार्ग है
इस पार की दुनियां में
अब अमन-चैन सुख-दुख
सिमटता जा रहा है
घटनाएं
परिवर्तित स्वरुप में
सामने आ रही हैं
लूटपाट-हत्या
अत्याचार आदि का
बोलबाला है............!

Saturday, July 25, 2009

तुम्हारा आना

तुम्हारा आना
जैसे ठंडी बयार का पास से हो कर गुजरना
तुम्हारा आना
जैसे चारु-चन्द्र की शीतलता का एहसास कराना
तुम्हारा आना
जैसे प्यासे खेतों में झमाझम बारिश का होना
तुम्हारा आना
जैसे बु्झते दीप का फिर से जलना
तुम्हारा आना
जैसे सब दु:खों को आते ही हर लेना
तुम्हारा आना................!

Friday, July 24, 2009

गंगा घाट पर

सूर्यग्रहण पर गंगा स्नान
कितना पावन काम
पर
मंगल-अमंगल
किसके हिस्से
यह तो है विधि हाथ
गंगा घाट पर
भरी भीड. में
हुई स्त्री की मौत
उसे पता न था.............!
उसके हिस्से क्या होगा
मंगल या अमंगल........?

Thursday, July 23, 2009

किसी का इन्तजार

अब गली सूनी सी लगती है
चिरपरिचित दरवाजो पर
कोइ नही है
पहले लगता था
कोइ न कोइ खडा है
पर
आज
दरवाजे भी

लोग भी..........

नही करता
कोई किसी का इन्तजार............!

Tuesday, July 21, 2009

जिन्दगी के रास्ते पर

जिन्दगी के रास्ते पर
निकलो
सामने होगी
दुख-सुख, इच्छा-अनिच्छा
आकांक्षा-महत्वाकांक्षा
और भी बहुत कुछ
इन सबके बीच झूलता हुआ आदमी
एक-एक मील का पत्थर
पार कर रहा है
इस रास्ते में
चौराहा भी है
चौराहे पर कुछ कथित
राह बताने वाले
और राह में चलने वाले
बहुत ही मुश्किल है
राह के लिये
मित्र का चुनाव
जिसे मिल जाय सही मित्र
और हमसफर भी
फिर उसे जीवन पथ पर
बढ़ने से
उस सीमा तक पहुँचने से
कौन रोक सकता है ?
जिसके आगे राह नहीं ....

Monday, July 20, 2009

झुक जाये समय भी

प्रिय !
उभरो
क्षितिज पर
महामानव बन कर
करो कुछ ऐसा
याद रखे दुनिया जिसे
और
बन जाओ
इतिहास पुरुष

भूलो
और
सबक लो
उस पल से
जब असहाय से
हो गये थे तुम

बनो कर्तव्यनिष्ठ
बदल सको परिस्थितियाँ
झुक जाये समय भी ।