Monday, September 7, 2009

विलक्षणता पांव पसारने लगती है....!

अकल्पनीय
घटनाओं का घटित होना
विस्मयकारी अनुभव लेकर आता है
इसके पीछे नियति का खेल
किस सीमा तक है ...?

मानस पटल पर
स्वतः दृश्यावलियां उद्भूत हो जाती है
अंकित करना न चाहते हुए भी
बच नहीं सकता है कोई ।

विलक्षणता पांव पसारने लगती है
उसके शब्दकोश में
गतिरोध जैसा शब्द नहीं
पल भर में
स्नेह निर्झर उन्मुक्त हो
स्निग्धता लिए हुए
काव्यालोक से होते हुए
मंत्रमुग्ध कर देती हैं ।

घनीभूत पीड़ा काफूर हो जाती है
उस स्वप्नलोकी दुनियां में
जहां कोई अपने पराये का भेद नहीं.....!

4 comments:

निर्मला कपिला said...

bahut sundar abhivyakti hai badhaaI

सर्वत एम० said...

क्या कविता है भाई!! दिमाग को राहत मिल गयी. बधाई.

Himanshu Pandey said...

शब्दकोश विलक्षण हो तो रचनाकर्म भी उल्लेखनीय़ हो जाता है । वैसे बात सौ फीसदी सच नहीं कह रहा हूँ, पर मान लो !

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

nive,manbhavan.narayan narayan