बच्चा रो रहा था
भूख से
निर्माणाधीन सड़क के किनारे
अस्तित्वविहीन पटरी पर
चिलचिलाती धूप में ।
घास - फूस के बीच
मां स्तन-पान भी न करा सकती थी
सड़क निर्माण जो हो रहा था
बड़े - बड़े गिट्टकों के बीच
धाड़ - धाड़ की आवाज
उसे चुप भी न करा सकती थी ।
मां निश्चित समय से ही छूटेगी
चिल्ला - चिल्ला कर रोना
नहीं देखते बनता उसे
कैसे छूट पाती वह ।
शाम से पहले
बच्चे का रोना
मां का अपने भाग्य पर रोना रोने से
क्या शिशुत्व - मातृत्व को
कोई अन्तराल निश्चित नहीं
भूख तो नहीं मरी जाती......।
6 comments:
नंगा यथार्थ रख दिया आपने । बच्चे की भूख ! माँ की छटपटाहट - दोनों क्या निस्पृह या विवश ।
श्रम कार्य में उलझी मजदूर स्त्री की व्यथा की बहुत
मार्मिक प्रस्तुति ..!!
yahi to vyatha hai garib kee.narayan narayan
ओह, मुझे अपनी एक पोस्ट याद आ गई - बीच गलियारे में सोता शिशु।
भावपूर्ण रचना वात्सल्य से भरपूर.
पत्थर तोड़्ती निराला की 'श्याम तन भर बँधा यौवन' वाली के माँ बनने के बाद की त्रासदी आप ने चित्रित कर दी।
ये सलोने चेहरे कितनी जल्दी कुम्हला जाते हैं! 'बँधा यौवन' बस चन्द महीनों में बिखर जाता है। मरद की दारूबाजी, बच्चे की बिमारी, विस्थापन के बाद 'घर' बनाने और चलाने की जिम्मेदारी ....जाने कितने बोझों तले कुचल जाती हैं ये लड़की से जल्दीबाजी में बनाई गई औरतें...
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