जब जब उठने का अवसर मिला
धड़ाम से गिरा दिया जाता हूँ मैं
कभी प्रकृति
कभी नियति
कभी किसी बड़ी बीमारी का
आकस्मिक अटैक
कि झट से उबर भी न सको
असर पड़त्ता है मनोदशा पर
रुटीन इकोनोमी पर
अपनों पर
जुड़े शुभेक्षुओं पर ।
सुबह से शाम तक सरकती
जिन्दगी
रात को आराम ले
फिर आ खड़ी होती है कमर कसके
हर क्षणका सामना डट के करने को
इस चल रही निरन्तर प्रक्रिया में
शरीर के साथ ही मनोदशा की भी
जम के परीक्षा हो जाती है
आखिर कब तक लगातार
परीक्षा में पास होता रहेगा
शरीर, फिर मनोदशा
चुकना भि तो है नियति
सो स्वभावतः
बीमारी का निशाना बन पड़ा
अब तक जो भी पाने में
बिना खयाल किये
खटाया था
चलो अब जुर्माना दो
जब प्रकृति संतुलन पर आधारित है
देह-धर्म कैसे अलग हो सकता है भला .... ।
Sunday, November 22, 2009
Wednesday, November 11, 2009
कितना उचित है....?
अपने ही देश में
राष्ट्र-भाषा की अवहेलना
करने को आतुर होना
कितना उचित है....?
यह ठीक है
हर प्रान्त की अपनी
आंचलिक भाषा हो
बात समझ में आती है
पर
काम-काज में
हिन्दी अपनाने से भागना
कहीं से उचित है भला...।
हिन्दी की स्थापना से आशय
यह कदापि नहीं कि
आपकी आंचलिक भाषा को
उपेक्षित किया जा रहा है....।
बार-बार अपने होने का बिगुल फूकना
बुद्धिमत्ता का परिचायक कहां से है..
राष्ट्र-भाषा की सशक्त उपस्थिति को
कैसे खण्डित कर सकता है कोई.....?
ऐसा करना
अपने आपको
टुकड़ों में बांटने जैसा है.....।
राष्ट्र-भाषा की अवहेलना
करने को आतुर होना
कितना उचित है....?
यह ठीक है
हर प्रान्त की अपनी
आंचलिक भाषा हो
बात समझ में आती है
पर
काम-काज में
हिन्दी अपनाने से भागना
कहीं से उचित है भला...।
हिन्दी की स्थापना से आशय
यह कदापि नहीं कि
आपकी आंचलिक भाषा को
उपेक्षित किया जा रहा है....।
बार-बार अपने होने का बिगुल फूकना
बुद्धिमत्ता का परिचायक कहां से है..
राष्ट्र-भाषा की सशक्त उपस्थिति को
कैसे खण्डित कर सकता है कोई.....?
ऐसा करना
अपने आपको
टुकड़ों में बांटने जैसा है.....।
Saturday, November 7, 2009
चली जा रही थी वह ....
चली जा रही थी वह .....!अपनी यादों को झोली में डाल ....। डोली में बैठ ....। छूटा जा रहा था..। बाबुल का घर...। मानो पीछे छूटता हुआ...., नैहर और घनीभूत हो हृदयंगम हो उठा हो । अश्रुधारा अपने कोमल अहसासों को बार-बार समेटे गालों से नीचे तक धार बना बह रही थी । सामने डोली में बैठा सजन भला उसे संभाल सकता था भला , शायद नहीं । चाह कर भी वह विदा करा कर घर ले जा रही ब्याहता को चुप कराने में असमर्थ सा हो रहा था । कहांरो के कदम आगे बढ़ रहे थे और उसका मन अपने बचपन की दुनियां की ओर लौट रहा था..। खो सी गयी वह....।
चार सखियों समेत उसे लेकर कुल पांच की टोली । जिसके लिये कोई काम असंभव नहीं । बचपन से किशोरावस्था के बीच किसी भी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम थी हमारी टोली ।किशोरी होने तक पाबंदियां जो नहीं थी ।सखियों के साथ गंगा जी के किनारे नहाने आते- जाते पुरुष और महिलाओं पर फिकरे कसना ,ठहाके लगाना, मौज-मस्ती करना, स्कूल में मास्टर जी की बातों को हवा में उड़ा देना । घर आकर अपनी कोठरी में जा रजाई तान के सो जाना ,सुबह देरी से उठने के लिये मां से डांट सुनना, बाबू जी के माथे पर अपने बडे़ होते देख चिन्ता की लकीरें । क्या यह सब भुलाया जा सकता है ...? चारों सखियां पहले ही ससुराल जा चुकी थीं । उनके मां - बाप बहुत पैसे वाले जो ठहरे ।
अजीब है समाज का ढांचा । जहां दहेज ने नस-नस में अपना पैसार कर रखा है ।जिस बाप को भगवान बेटी दें उसे धन भी पर्याप्त दें । बिना धन के बेटियां असमय ब्याह दी जाती हैं । चाहे समय से पहले या बाद में । उनके सारे अरमानों पर पानी फिर जाता है । समाज में कितने उलाहनों को सहना होता है उन्हें । हर शोहदों की बुरी दृष्टि से बचना होता है । अपनी अस्मिता व पिता की मर्यादा दोनों के लिये । मेरे बाबू जी पहले ही तीन बेटियों व एक बेटे की शादी करने में अपना सब कुछ दांव पर लगा चुके थे । स्वाभाविक था कि मेरी शादी में बाबू जी से विलम्ब हो । हां ! पिता जी भैया की शादी में दहेज मांगे ही न थे । पर दहेज न मांगने से दहेज न देने की स्थिति का निर्माण नहीं हो जाता । शादी में हम दहेज न लें पर हम किसे मनायेंगे कि आप भी दहेज न लो । बिटिया की शादी करनी है तो दहेज देना ही होगा ।
कितना अजीब होता है नारी का जीवन ? कहीं भी से आस्वस्त भाव नहीं प्राप्त नहीं होता । बचपन में मां - बाप की सेवा ,विवाहोपरान्त पति के अधीन समर्पण भाव ,फिर सन्तान की सेवा । जहां देखो त्याग ही त्याग ...। शायद इसी लिये सहनशक्ति का भाव यूं ही विकसित हो जाता है । सहते- सहते वह इतनी परिपक्व हो जाती हैं कि प्रसव पीड़ा के लिये भी गुजरने को तैयार हो जाती हैं । मर्दों को यदि ऐसी स्थिति से गुजरना शायद इनके बस की बात नहीं ।
ध्यान भंग होते ही देखती है ससुराल आ गया है अब तो डोली से बाहर नयी दुनियां में निकलने का वक्त है......।
चार सखियों समेत उसे लेकर कुल पांच की टोली । जिसके लिये कोई काम असंभव नहीं । बचपन से किशोरावस्था के बीच किसी भी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम थी हमारी टोली ।किशोरी होने तक पाबंदियां जो नहीं थी ।सखियों के साथ गंगा जी के किनारे नहाने आते- जाते पुरुष और महिलाओं पर फिकरे कसना ,ठहाके लगाना, मौज-मस्ती करना, स्कूल में मास्टर जी की बातों को हवा में उड़ा देना । घर आकर अपनी कोठरी में जा रजाई तान के सो जाना ,सुबह देरी से उठने के लिये मां से डांट सुनना, बाबू जी के माथे पर अपने बडे़ होते देख चिन्ता की लकीरें । क्या यह सब भुलाया जा सकता है ...? चारों सखियां पहले ही ससुराल जा चुकी थीं । उनके मां - बाप बहुत पैसे वाले जो ठहरे ।
अजीब है समाज का ढांचा । जहां दहेज ने नस-नस में अपना पैसार कर रखा है ।जिस बाप को भगवान बेटी दें उसे धन भी पर्याप्त दें । बिना धन के बेटियां असमय ब्याह दी जाती हैं । चाहे समय से पहले या बाद में । उनके सारे अरमानों पर पानी फिर जाता है । समाज में कितने उलाहनों को सहना होता है उन्हें । हर शोहदों की बुरी दृष्टि से बचना होता है । अपनी अस्मिता व पिता की मर्यादा दोनों के लिये । मेरे बाबू जी पहले ही तीन बेटियों व एक बेटे की शादी करने में अपना सब कुछ दांव पर लगा चुके थे । स्वाभाविक था कि मेरी शादी में बाबू जी से विलम्ब हो । हां ! पिता जी भैया की शादी में दहेज मांगे ही न थे । पर दहेज न मांगने से दहेज न देने की स्थिति का निर्माण नहीं हो जाता । शादी में हम दहेज न लें पर हम किसे मनायेंगे कि आप भी दहेज न लो । बिटिया की शादी करनी है तो दहेज देना ही होगा ।
कितना अजीब होता है नारी का जीवन ? कहीं भी से आस्वस्त भाव नहीं प्राप्त नहीं होता । बचपन में मां - बाप की सेवा ,विवाहोपरान्त पति के अधीन समर्पण भाव ,फिर सन्तान की सेवा । जहां देखो त्याग ही त्याग ...। शायद इसी लिये सहनशक्ति का भाव यूं ही विकसित हो जाता है । सहते- सहते वह इतनी परिपक्व हो जाती हैं कि प्रसव पीड़ा के लिये भी गुजरने को तैयार हो जाती हैं । मर्दों को यदि ऐसी स्थिति से गुजरना शायद इनके बस की बात नहीं ।
ध्यान भंग होते ही देखती है ससुराल आ गया है अब तो डोली से बाहर नयी दुनियां में निकलने का वक्त है......।
Wednesday, November 4, 2009
कहीं यह मेरे पैरों से.....
राह पर चलता हुआ आदमी
निहार रहा है
राह के कंकड़ों को
जिसने कितनों से खाया होगा
ठोकर
उसकी ओट में
जा दुबकती चींटी को
यह समझ कर कि
कहीं यह मेरे पैरों से
दबने के डर से
ही नहीं जा चिपकी है
उसकी ओट से
नन्हीं सी जान
जिसे बोध है
जीवन मरण का
आज
आदमी
महत्वाकांक्षा की होड़ में
खुद को भूलता जा रहा है
रास - रंग व भौतिकता से अवकाश
शायद
उसके अपने बस की बात नहीं !
निहार रहा है
राह के कंकड़ों को
जिसने कितनों से खाया होगा
ठोकर
उसकी ओट में
जा दुबकती चींटी को
यह समझ कर कि
कहीं यह मेरे पैरों से
दबने के डर से
ही नहीं जा चिपकी है
उसकी ओट से
नन्हीं सी जान
जिसे बोध है
जीवन मरण का
आज
आदमी
महत्वाकांक्षा की होड़ में
खुद को भूलता जा रहा है
रास - रंग व भौतिकता से अवकाश
शायद
उसके अपने बस की बात नहीं !
Monday, November 2, 2009
अहंकार के बादल......
रुतबा
शब्द आते ही
सायास
दिलो -दिमाग के किसी कोने में
अहंकार के बादल
घुमड़ - घुमड़
हवा के साथ - साथ
गलबहियां शुरु कर देते हैं
सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।
शब्द आते ही
सायास
दिलो -दिमाग के किसी कोने में
अहंकार के बादल
घुमड़ - घुमड़
हवा के साथ - साथ
गलबहियां शुरु कर देते हैं
सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।
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