Tuesday, September 29, 2009

खिड़की से आकाश ......!

खिड़की से आकाश
अपने सीमित फलक वाला दिखता है
क्षितिज का भी अपना पता नहीं
यह बोध कब होगा...!

ऐसा क्यों होता है
कमरे में बैठ कर
सामान्य चर्चाओं में नुक्ताचीनी
आकाश ऐसा है
आकाश वैसा है
खुद को आवरण में रखकर
बेहतर अभिव्यक्ति की अपेक्षा संभव है....?

किसी भी विचार अभिव्यक्ति के पीछे
देश,काल,वातावरण के अनुसार
काल,पात्र,विवेचन
प्रभावित होता रहा है ।

आकाश के विस्तृत फलक को
खुले मैदान में आकर ही
अनुभव किया जा सकता है
कि यह अपने आवरण में सर्वस्व समेटे हुए हैं ।

क्षितिज की परिधि में
आमूल-चूल रूप में
एक छोटी सी दुनियां है
जिसमें अपना संसार बसता है
और
इसके पार कल्पनालोकी दुनियां....!

Monday, September 28, 2009

राम-राज्य की परिकल्पना .....!

विजयादशमी
आश्विन शुक्ल की दशमी
अपने अमरत्व को लेकर
सदियों से इतरा रही होगी.....!

भगवान राम के
अधर्म पर धर्म की
असत्य पर सत्य की विजय
और
गृह-नगर-आगमन का श्रेय
मुझे ही मिला !

जायज भी है
जिसके हिस्से
लग जाय इतना बड़ा श्रेय
वह अपने आगत को लेकर भी
सुनिश्चित होगा ही...!

मनाना विजयादशमी को
उचित है
राम रावण युद्ध और राम की विजय
एक बड़े जनसैलाब के समक्ष मंचन
आमंत्रण है हमें कि
जीवन में सत्य के मार्ग पर
सदैव ही चलकर
सही संस्थापना होती है !

सदियों से चले आ रहे
इस पर्व का प्रभाव
जनसामान्य में
सार्थक हुआ होता
राम-राज्य की परिकल्पना
साकार नहीं होती....!

Saturday, September 26, 2009

हाईकू.....!

भोर हुआ धरती पर
"मानस"
जाग उठा ..!


तुम न थे
पर
तुम्हारी याद साथ - साथ थी..!


तुमसे रूखसत हुआ
तो
होश आया..!


स्वप्न
सलोना हो
तेरे जैसा..!

बचपन का
भोलापन
यहां ईश्वर बसता है..!

Friday, September 25, 2009

बादल मंडरा रहे हैं...!

बादल मंडरा रहे हैं
खुशियों के
जाने कब बरस जांय
कर दें सराबोर
इस पूरे आभामंडल को ।

रोम रोम हो जाय
पुलकित
तुम्हारे आने की
तमन्नाओं का सफर
जल्द ही रंग लायेगा ।

ऐसा लगता है
मंजिल अपनी ओर
सायास ही
रंग बिरंगे स्वप्न लिये
आकर्षित कर रही है ।

तुम साथ हो तभी
सारी खुशियों की रवानी है
आ जाओ जब
सब कुछ बेहतर सा दिखने लगता है-
सुबह खिली खिली सी..
शाम रंगीन और भी बहुत कुछ..!

साथ ही मूल्यांकन करता हूं जब
हर रात सोने से पहले
दिन भर का
हर क्षण मूल्यवान सा दिखता है ।

Wednesday, September 23, 2009

फूल जाते हैं हांथ पांव.....!

दिन -ब - दिन
समस्याएं साथ नहीं छोड़ रहीं
इस जंजाल से मुक्ति पाने का
अनूठा मार्ग है
समस्या के साथ ही साथ ।

जितनी गहरी समस्या
उतनी मोटी रकम
घूस के रूप में
समस्या हल हो जायगी
बिना किसी योग्यता के ।

मोटी रकम से निर्धारित मानक
क्षण भर मे
सारे मानक खुद - ब - खुद
पूरे हो जाते हैं...!
और हो जाते हैं सफल ।

कुछ लोग !
देखते रह जाते हैं वह
जो जानते हैं उनकी वास्तविकता
हांथ पर हांथ धरे रह जाना
बन जाती है उनकी नीयति...!

देख कर यह सब
फूल जाते हैं हांथ पांव
हृदय में चलने लगते हैं घूंसे
धाड़ - धाड़ बजने लगता है वह ।

क्या मेरी सारी ऊर्जा
जो लगा दी मैने
एकेडमिक रिकार्ड बनाने में
उसका कोई मोल नहीं
क्योंकि नही दे सकता मैं
इतना सारा घूस .....।

Tuesday, September 22, 2009

कौन कहे जा करके - उस मां से .....!

दुर्घटनाए
जानलेवा न हों
ढाढस बाधा जाना ...!
बात समाझ में आती है ।

हाईवे पर छः घण्टे के अन्दर
छः छः मौतों ने
हिला कर रख दिया
सड़क पर वही चल रहे होते हैं
जिनसे न जाने कितनों के
अरमान जुड़े होते हैं ।

किसी मां ने लगाया होगा तिलक
जा बेटा ! तुझे आज अवश्य मिलेगी सफलता
बगल में परदे से झांक रही पत्नी
कितने अरमानों से की होगी मंगल कामना
हे ईश्वर ! अब हमारा चमन भी खिल उठे
चौखट पर खेल रही बिटिया ने देखा होगा.....!
अबकी पापा रेलगाड़ी जरूर ला देंगे
खूब चलाउंगी मै

कौन कहे जा करके
मां से !
पत्नी से ! और
उस नन्हीं सी बिटिया से ।

और कैसे ?
कि तुम्हारा ........!

अनायास, असमय, अकारण
हंसी अच्छी नहीं लगती....!

फिर यह मौत....?

Monday, September 21, 2009

झंकृत स्वर....!

झंकृत स्वर
गुंजायमान हो उठा
एक बार फिर
लम्बे अन्तराल के बाद ।

तुम ठीक उसी तरह आज भी दिखे थे
सादगी के आभूषण
आज भी सुशोभित हो रहे थे
आत्मविश्वास से भरा देख
प्रमुदित हो रहा था मैं ।

तुम्हारा झल्लाना
अब
मधुर मुस्कान में
तब्दील चुका था...!

शारदीय नवरात्रि में
संयोगात अलग - अलग पंक्ति में
साथ ही आशीर्वाद जैसे
वर्षों से चली आ रही परंपरा
सी हो गयी हो...!

ठीक उसी सिद्धान्त की तरह
जैसे-
"आपतित किरण, परावर्तित किरण और अभिलंब
तीनो एक ही बिन्दु पर होते हैं ।"

समय की गति ने रफ्तार ली
लेकिन
हम दोनों वैसे ही हैं
जैसे होते हैं नदी के किनारे
जिन्हें नहीं होना साथ साथ
बस लहरें हैं प्रेम की
जिससे होता है भावास्पर्श
हमारा - तुम्हारा...!

Sunday, September 20, 2009

कलुषित हो जाता है मन....!

कलुषित हो जाता है मन
दिन ब दिन
प्रवंचनाएं नये रंग ला रही हैं
जब भी कुछ नया करने को सोचता है मानव ।

जाने क्यों
सींखचों में जकड़ा सा पाता है
जब भी विचारधाराएं
पंख पसार उड़ना चाहती हैं
लगता है जैसे
पहले से ही कोई जाल बिछाये है ।

राहों के दरवाजों पर
सांकले लगा दिये जाते हैं
घुट कर दम तोड़ देना
जैसे नीयति सी हो गयी है ।

बार बार यही सुनना
कथित संभ्रांत लोगों से
अरे नहीं!
यह हमारी परंपराओं के खिलाफ है
इस भाव का प्रतिध्वनित होना
धुधले आवरण में
ढंक लेता है ।

क्या इन अतृप्त आत्माओं से
साहचर्य दे पायेगा उचित दृष्टिकोंण....!

Saturday, September 19, 2009

क्षणिकाएं...!

तुम न थे
तो जिन्दगी न थी
तुम आये जिन्दगी में
तो रौनक आयी ।

तुम्हारे सामने
कुछ कह भी न सके
दिल की बात
दिल में ही रह गयी !

तुम्ही बताओ
तुम्हारे वास्ते के सिवा
अपना
भी कोई रास्ता था...?

मेरे मालिक !
तु मुझे बेरुखी न दे
तेरे दर से
ऐसे भी कोई जाता है !

तुमने देखा
तो मुंह फेर लिया
हम तो आये थे
तेरा होने को !

Friday, September 18, 2009

विकलांगता का होना....!

विकलांगता का होना
किसी अभिशाप से कम नहीं
उसके भेद
चाहे जिस रूप में हो
दुखदायी ही होते हैं ।

शारीरिक विकलांगता हो
वह भी आंशिक
बात उतनी नहीं बिगड़ पाती
जितनी पूर्ण से होती है ।

ऐसे में
कुछ कर गु्जरने का साहस यदि हो भी
अनेक कष्टों को सहना होता है उसे
साथ ही उपेक्षा भी ।

विकलांगता जब मानसिक हो
स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है
शारीरिक विकलांगता में कुछ संभव भी है
और इसमें चेतन - अवचेन का कोई भेद नहीं ।

वाह रे ! नियति
अजीब है यह खेल.....।
लोग इसे पागलपन क्यों समझते हैं
अभिशप्त होने के पीछे
उसका क्या दोष....?

Thursday, September 17, 2009

दांव - पेच से दूर होता है बचपन...!

दांव - पेच से दूर होता है बचपन
नहीं फिकर कहां क्या हो रहा है
जो सामने है
वही अपनी दुनिया है |

उसे क्या पता
बुद्धि बड़े रंग दिखाती है
अपने - पराये , हमारा - तुम्हारा
और भी बहुत कुछ |

खेल - कूद में गुस्सम - गुस्सा
लम्बी अवधि का नहीं होता
यहां अभिमान टकराता ही नहीं
इसी लिये मेल - मिलाप में देरी नहीं होती |

आज हम युवा हैं
बडी़ कूटनीति से रहना हमारा धर्म सा हो गया है
न हों आप ऐसे
सामाजिक मोह पास
आपको अपने निमित्त बना कर रख देगा
जीवन के उस मोड़ पर
जब आप अपनी दिशा निर्धारण कर रहे होते हैं |

यही लोग जो आज पसंद कर रहे हैं
आने वाले समय में
स्थापित नहीं किया खुद को
निन्दा करते देर नहीं लगती
अरे...!
कुछ नही कर रहे हो ....!

Wednesday, September 16, 2009

मेरे जीवन का सर्वस्व...!

हमारा और तुम्हारा साथ
अभी से नहीं
जनम - जनम से है
तुम्ही कहते हो...!

तुम्हारे चेहरे की अकुलाहट
नहीं समझ में आती
क्यों बेचैन हो उठते हो
विचलित हो जाता है मन
अविवेकी हो जाता हूं ।

अरे !
तुमसे अलग कैसे हो पाऊंगा
अलग होने का भाव जुड़ा है-
लोभ, मोह, मद,से ।

तुम और हम
आसक्ति के वशीभूत नहीं
प्रेम बांधता नही हमें
मुक्त करता है
उन समस्त प्रवंचनाओं से
जो हमारे मार्ग में बाधक हैं
कैसे समझाऊं तुम्हें
मेरे जीवन का सर्वस्व
तुम्हारे निमित्त है...!

Tuesday, September 15, 2009

सूर्य कभी अस्त होता है क्या....!

बचपन में गुरु जी ने
रटा डाला--
बेटा !
सूरज पूरब में उगता है
पश्चिम में अस्त होता है
मैने भी देखा
हां यह सच है ।

समय अपने गति से आगे बढ़ा
बड़ा हुआ मैं
सोचने समझने का स्तर
समानान्तर बढ़ता गया ।

विज्ञान और मानविकी के अध्ययन से
कुछ और ही बातें सामने आयी
मन अन्तर्द्वन्द से भर उठा -
अरे ! यह क्या ।

सूर्य कभी अस्त होता है क्या
ये हमारी पृथ्वी की गतियां हैं
जिससे उसके उदय और अस्त होने का भाव
निश्चित हो जाता है जेहन में ।

जिसने हमें ककहरा सिखाया
उस गुरू जी के प्रति
श्रद्धा भाव के सिवा
शंका भाव का प्रश्न ही नहीं
शैक्षिक विरासत की नींव
उन्होंने ही रखी तो थी....।

Monday, September 14, 2009

हिन्दी दिवस तब्दील हो....!

हिन्दी दिवस
हमारी हिन्दी परंपरा के बोध मात्र के लिए  ही नहीं
जिससे कि हमारी शब्दावलियां , साहित्य भण्डार,
विरासत में मिले ऐसे साक्ष्य
और हमारी मातृ-भाषा
अपने इतिहास को सशक्त बनाते हों

हमारे पुरोधाओं ने
अपना सर्वस्व न्यौ़छावर कर
गरिमामय संकल्पना से
स्थापित किया इसे
इनकी प्रेरणा
सिमट कर न रह जाय
हिन्दी दिवस मनाने मात्र में-----
बैनर लगाया
किसी को मुख्य अतिथि बनाया
पचीस - पचास के बीच में
स्थितप्रज्ञ हो
ढेर सारी कार्य योजना का संकल्प लिया
और फिर
अपनी - अपनी डफली
अपना - अपना राग

सच तो यह है
अब बहुत हो चुका
क्या बचा है खोने को 
हिन्दी दिवस तब्दील हो--
हिन्दी सप्ताह में
हिन्दी माह में
हिन्दी वर्ष में
हिन्दी दशक में
तब तक जब तक कि
रग - रग में हमारी मातृ-भाषा
सर्वश्रेष्ठ रूप में स्थापित न हो जाय ।

Sunday, September 13, 2009

मां स्तन-पान भी न करा सकती थी.....!

बच्चा रो रहा था
भूख से
निर्माणाधीन सड़क के किनारे
अस्तित्वविहीन पटरी पर
चिलचिलाती धूप में ।

घास - फूस के बीच
मां स्तन-पान भी न करा सकती थी
सड़क निर्माण जो हो रहा था
बड़े - बड़े गिट्टकों के बीच
धाड़ - धाड़ की आवाज
उसे चुप भी न करा सकती थी ।

मां निश्चित समय से ही छूटेगी
चिल्ला - चिल्ला कर रोना
नहीं देखते बनता उसे
कैसे छूट पाती वह ।

शाम से पहले
बच्चे का रोना
मां का अपने भाग्य पर रोना रोने से
क्या शिशुत्व - मातृत्व को
कोई अन्तराल निश्चित नहीं

भूख तो नहीं मरी जाती......।

Saturday, September 12, 2009

धरती सा धैर्य का परिचय देते हो....!

तुम अनुपम हो
सृष्टि के सभी तत्व
धरती, आकाश, अग्नि, जल,हवा
सबने तुम्हें रचने में
अपना सर्वस्व उड़ेल दिया
तुम्हारे व्यक्तित्व में
ये सभी तत्व अपनी पूर्णता लिए
विद्यमान हैं
धरती सा धैर्य का परिचय देते हो
जब भी परिस्थितियां  अनुकूल नहीं होती
कहीं भी तुम्हारी उपस्थिति होती है
पूरी महफिल में
आकाश सा छा जाते हो
संयोग का ऐसा मिलन
क्षितिज पर जैसे धरती और आकाश
मानस विचरण करने लगता है
मुक्ताकाश में
तुम्हारी वाणी में ऐसा प्रवाह
जो किसी हवा के बेहतर गुणधर्मों से कम नहीं
यह तत्व भी शोभायमान हो जाता है
तेजमय मस्तक यदि रूद्र  रूप में आ जाय
आभामंडल में कुछ भी असंभव नहीं
ऐसे परास्त करते हो जैसे
परास्त करना हंसी-खेल हो
इन सबके साथ
नीर ..अपनी शुचिता लिए
झील सी नीली आंखों मे विद्यमान है
दृष्टि जिसपर पड़ जाय
कर दे उसे पावन
निर्मल मनभावों से ........।

Friday, September 11, 2009

कुर्सी व कलम की रूह हिल गयी होगी...!

कलियुग के गुण धर्म का
एक नया संस्करण सामने है
प्रकृति का ऐसा अनगढ़
जिसे  कभी प्राकृतिक सुख न मिला
जीवन के रंगो को जाना पहचाना नहीं
आज ऐसी कुर्सी पर है
जहां कभी विलक्षण प्रतिभा के धनी
सुशोभित हुआ करते थे
दिया था उन्होंने कितनों को अभयदान
उसी कुर्सी पर बैठ कर
यह
अपनी दोहरी भूमिका निभा रहा है
खुद को सच का चोंगा पहना कर
घात-प्रतिघात के निर्णय निर्माण में
दर-ब-दर तूलिकाएं तोड़ रहा है
खुद जिसके कर्म का कौमार्य
उसे चिढ़ा रहा हो
उससे न्याय की कल्पना
जो आदर्शोन्मुख हो
शायद अनुचित है
उसके न्याय में सिवाय स्वांग के
और क्या होगा
ऐसे फैसलों को अनुभव कर
कुर्सी व कलम की रूह हिल गयी होगी
तरस आया होगा उसे अपने आप पर ।

न सह सके ऐसे व्यक्तित्व का बोझ वह
न देख सके अपने इतिहास को कलंकित
शायद इसी लिए नियति के खेल ने
कुर्सी को कबाड़खाने भेज दिया
उसपर पुराने होने का आरोप लगाकर........!
आज उसका स्थान नयी "चेयर" ने ले लिया था ।

Thursday, September 10, 2009

आज तुम यहां होते ..!

आजकल हर लम्हा
सवाल पूछता है
कितने बदल गये हो तुम
समय ऐसा करवट लेगा
तुम्हारे जीवन से
अवकाश के क्षण
भी बार- बार पुकार कर
अपना हक मांगेंगे
और तुम उन्हें क्या दे सकोगे ।

पिछले पायदान के पदचिह्न
साथ गुजरे एक-एक पल
का हिसाब करने को बेकरार हैं
कहते हैं
अरे ! मैने ही साथ दिया था
उस वक्त जब तुम्हारी
अपनी कोई पहचान न थी
कदम - कदम पर हौसला दिया
और बेहतर संयोग भी
नहीं होता न्याय तुम्हारे साथ
आज तुम यहां होते ........!

Wednesday, September 9, 2009

भारतेन्दु जी के जन्म दिवस पर

राम भजो राम भजो राम भजो भाई ।
राम के भजे से गनिका तर गई,
राम के भजे से गीध गति पाई।
राम के नाम से काम बनै सब,
राम के भजन बिनु सबहि नसाई॥
राम के नाम से दोनों नयन बिनु,
सूरदास भए कबिकुल-राई।
राम के नाम से घास जंगल की,
तुलसीदास भए भजि रघुराई॥
                                       
                                    ( भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत - अन्धेर नगरी से)                 

Tuesday, September 8, 2009

पारदर्शिता - अपारदर्शिता के बीच.......!

बावरा मन
बड़ा भोला है
नहीं रखता याद
उसके साथ क्या घटित हुआ...।
 नहीं पड़ा इसके पचड़े में
संभव है दूरदर्शी हो
दुनियां के मकड़जाल का  क्या पता इसे
अतीत का सुख-दुख
और वर्तमान में सहभागी बन कर
सच को बार- बार परेशान देखकर भी
अपना धैर्य नहीं खोता
किसी की निष्ठुरता पर
बयानबाजी नहीं करता |
दूरदर्शिता की पराकाष्ठा
अपने समस्त अर्थों में विद्यमान है यहां
सारे चिन्तन से परे
अजीब दुनियां बसती है......!

चुक जाते हैं गणित के भेद
पारदर्शिता - अपारदर्शिता के बीच.......!

Monday, September 7, 2009

विलक्षणता पांव पसारने लगती है....!

अकल्पनीय
घटनाओं का घटित होना
विस्मयकारी अनुभव लेकर आता है
इसके पीछे नियति का खेल
किस सीमा तक है ...?

मानस पटल पर
स्वतः दृश्यावलियां उद्भूत हो जाती है
अंकित करना न चाहते हुए भी
बच नहीं सकता है कोई ।

विलक्षणता पांव पसारने लगती है
उसके शब्दकोश में
गतिरोध जैसा शब्द नहीं
पल भर में
स्नेह निर्झर उन्मुक्त हो
स्निग्धता लिए हुए
काव्यालोक से होते हुए
मंत्रमुग्ध कर देती हैं ।

घनीभूत पीड़ा काफूर हो जाती है
उस स्वप्नलोकी दुनियां में
जहां कोई अपने पराये का भेद नहीं.....!

Sunday, September 6, 2009

अभी जीना है...!

मुझे अभी जीना है कविता के लिए नहीं
कुछ करने के लिए कि मेरी संतान  मौत कुत्ते की  न मरे
मै आत्महत्या के पक्ष में नहीं हूं तो इसलिए
कि मुझसे पहले मरें वे जो कि
मेरी तरह मरने को बाध्य हैं
कुछ नहीं करता हूं मृत्यु के भय से मैं
सिर्फ अपमान से उनको बचाता हूं
जिन्हें मृत्यु आकर ले जायगी
दबे पांव आहट को सुनता हूं
और उसे शोर बनने नहीं देता हूं
हां मैं कुछ करता हूं जिसका
उपचार से कोई संबंध नहीं


                                     (‘रघुवीर सहाय‘ की कविता)

Saturday, September 5, 2009

शिक्षक दिवस पर..

शिक्षक दिवस पर...
एक पत्र उन शिक्षकों के नाम
जिन्हों ने जहां को रोशन करने में
अपना सब कुछ लुटा दिया ।


परम आदरणीय,
                       सादर...!
                                    आपके योगदान को
                                    कैसे भूलेगा यह संसार ?
                                    क्या आपको एक दिवस ही काफी है ?

                                    जब पुरस्कृत होता है छात्र
                                    उसके पार्श्व में और कौन है
                                    आपके सिवाय,
                                    किसे मिलता है पुरस्कार,
                                    कौन होता है हर्षातिरेक से पागल,
                                    किसका उल्लास छूता है आकाश -
                                    छात्र का ? या आपका ?
                                    हर उस रोज होती है
                                    स्थापना ....!
                                    शाश्वत सच की
                                    जिस तक पहुचाने का माध्यम
                                    अगर कोई है तो वह....
                                   कोई और नहीं शिक्षक ही है.......!
                                                                                    सादर प्रणाम......!

Friday, September 4, 2009

मेरे कुछ मुक्तक

सुबह से शाम तक बैठा रहा
तेरे इन्त्जार में
तुम हो
कि आये और चल दिये ..।


मुद्दत बाद
तुम्हारा दीदार हुआ
चलो अच्छा हुआ
एक बार हुआ...


हम मुसाफिर हैं
ये राह हो न हो
रहगुजर तो है
साथ चलते रहेंगे...।


तुम्हारा खयाल आया
तो यादों के साथ हो लिए
साथ तुम तो न थे
तुम्हारी याद ही सही..।


हम तो आये थे
कुर्बान होने को
यहां देखा तो
तुम विदा हो रही थी  ...।

Thursday, September 3, 2009

सब कुछ पहले सा हो गया...

मैने देखा
एक आदमी का जीवन
कैसे बदलता है
समय ने जख्म कैसे भर दिया
कभी उसकी चित्कार ने
झकझोर कर रख दिया
और आज
पुन: आस्थावान है
उसमें जीवन को लेकर
फिर से आस जगी है
नयी नयी बातें करता है वह
सभी
सब कुछ पहले सा हो गया...

शायद यही समय की मांग है..?
निराशा ने दम तोड़ दिया
आज आशावान हो गया है
अतीत के दुख दर्द
गये जमाने की है बात
भावप्रवणता ने उंचाई पा ली है

सब कुछ पहले सा हो गया....!

Wednesday, September 2, 2009

सागर से लहरें उठती हैं

सागर से लहरें उठती हैं
साहिल की ओर
निरन्तर बढ़ने को उत्सुक
इनकी उमंगें
शान्त पवन को झकझोरती हूई
निर्द्वन्द, निर्लिप्त निश्चेष्ट भाव से
पुकार रही हैं.................।
आओ......!
मुझमें निहित अन्तष्चेतना के साथ
यात्रा करें उस ओर
जहां बसती है दुनियां
रंग बिरंगी
प्रकृति के कुछ अद्भुत नजारे।

इन नजारों को
निरखने को तत्पर
हमारी आंखें
करने को अंकित आतुरता से.....!
अपने मानस पटल पर
रच जाय ऐसा आयाम
जो दे सके
अकल्पित, शाश्वत, निर्मल ,पावन
हृदयंगम हो जाय
ऐसी खुशियां
सबके बीच सौहार्द्र..........!

Tuesday, September 1, 2009

समय भी अब धीरे-धीरे चलने लगा

कब से देखता रहा तुम्हारी राह
तुम ना आये
तुम्हारा न आना
समय की गति को भी परिवर्तित कर दिया ।

समय भी अब धीरे-धीरे चलने लगा
आज तुम न सही
तुम्हारी यादें तो हैं
बीते हुए कल का
जब भी पलटता हूं
एक-एक पन्ना
तुम्हारे साथ जिया एक-एक पल ।

हरा हो जाता है क्षण-क्षण
और फिर  खो जाता हूं
उस पल में
कुछ भी याद नहीं रहता
कि और भी कुछ करना है।

तुमने दिया था एक सम्बल
हमारे स्वत्व को
और पुन: लौटा मुझमें आत्मविश्वास ।