तुम अनुपम हो
सृष्टि के सभी तत्व
धरती, आकाश, अग्नि, जल,हवा
सबने तुम्हें रचने में
अपना सर्वस्व उड़ेल दिया
तुम्हारे व्यक्तित्व में
ये सभी तत्व अपनी पूर्णता लिए
विद्यमान हैं
धरती सा धैर्य का परिचय देते हो
जब भी परिस्थितियां अनुकूल नहीं होती
कहीं भी तुम्हारी उपस्थिति होती है
पूरी महफिल में
आकाश सा छा जाते हो
संयोग का ऐसा मिलन
क्षितिज पर जैसे धरती और आकाश
मानस विचरण करने लगता है
मुक्ताकाश में
तुम्हारी वाणी में ऐसा प्रवाह
जो किसी हवा के बेहतर गुणधर्मों से कम नहीं
यह तत्व भी शोभायमान हो जाता है
तेजमय मस्तक यदि रूद्र रूप में आ जाय
आभामंडल में कुछ भी असंभव नहीं
ऐसे परास्त करते हो जैसे
परास्त करना हंसी-खेल हो
इन सबके साथ
नीर ..अपनी शुचिता लिए
झील सी नीली आंखों मे विद्यमान है
दृष्टि जिसपर पड़ जाय
कर दे उसे पावन
निर्मल मनभावों से ........।
8 comments:
मनभावन चरित्र की कल्पना है दोस्त ! मनभावन कविता भी ।
आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.
पावन निर्मल मनोभावों से युक्त धरती की गंभीरता लिए इस अद्भुत कविता पर टिपण्णी के लिए शब्दों का चयन बहुत मुश्किल है ..
बहुत बहुत खुबसूरत रचना ..
क्या बात है, बेहतरीन!!
यार आपने मानव रचना और उसके व्यक्तित्व तथा सम्भावनाओं का ऐसा सजीव चित्रण किया है जिसकी तारीफ न की जाये तो बे-ईमानी की मुहर अपने आप लग जाये. हालाँकि आज के मानव ने सब उल्टा पुलटा कर लिया है. धरती की तरह रौंदा जाता है, कुछ लोग उस पर आकाश बनकर छा जाते हैं, हवा में बह जाता है, ईर्ष्या की अग्नि में भस्म होता रहता है, जल--वो तो पृथ्वी से गायब हो रहा है. आँखों का तो पहले मर चुका था.
बहुत खूब लिखा है आपने.. हैपी ब्लॉगिंग
बहुत सुन्दर लिखा है मित्र!
बकिया, आजकल धरती का धैर्य हांफने सा लगा है!
ऐसी कविताएं
अंत नहीं
आरंभ हैं
हैं न हेमन्त।
इंसान सीखे
धरती से
तो उपजाऊ
हो जाए
क्यों मित्र।
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