दांव - पेच से दूर होता है बचपन
नहीं फिकर कहां क्या हो रहा है
जो सामने है
वही अपनी दुनिया है |
उसे क्या पता
बुद्धि बड़े रंग दिखाती है
अपने - पराये , हमारा - तुम्हारा
और भी बहुत कुछ |
खेल - कूद में गुस्सम - गुस्सा
लम्बी अवधि का नहीं होता
यहां अभिमान टकराता ही नहीं
इसी लिये मेल - मिलाप में देरी नहीं होती |
आज हम युवा हैं
बडी़ कूटनीति से रहना हमारा धर्म सा हो गया है
न हों आप ऐसे
सामाजिक मोह पास
आपको अपने निमित्त बना कर रख देगा
जीवन के उस मोड़ पर
जब आप अपनी दिशा निर्धारण कर रहे होते हैं |
यही लोग जो आज पसंद कर रहे हैं
आने वाले समय में
स्थापित नहीं किया खुद को
निन्दा करते देर नहीं लगती
अरे...!
कुछ नही कर रहे हो ....!
4 comments:
Bahut Behatareen kavita likhi aapne jo bachpan ke yadon ko sanjota hua ek sukhad anubhuti deta hai..
badhayi
सच है बचपन की बातें फिर कहां मिलती हैं?
BACHPAN KABHI DUBAARA NAHI AATA ..... SACH MEIN BHOLA HOTA HAI BACHPAN ...
कुल मिलाकर कहना यही है कि बचपन की वही तासीर असल जिन्दगी में भी तारी हो जाय । हमारी जिन्दगी का सब कुछ बस एक ही जबान में बात करे और उसका तलफ्फुज़ उसी बचपन के तलफ्फुज की तरह तोतला तो हो, बे-मानी तो हो पर उसमें आब हो, पानी हो !
कविता का आभार ।
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