Wednesday, September 16, 2009

मेरे जीवन का सर्वस्व...!

हमारा और तुम्हारा साथ
अभी से नहीं
जनम - जनम से है
तुम्ही कहते हो...!

तुम्हारे चेहरे की अकुलाहट
नहीं समझ में आती
क्यों बेचैन हो उठते हो
विचलित हो जाता है मन
अविवेकी हो जाता हूं ।

अरे !
तुमसे अलग कैसे हो पाऊंगा
अलग होने का भाव जुड़ा है-
लोभ, मोह, मद,से ।

तुम और हम
आसक्ति के वशीभूत नहीं
प्रेम बांधता नही हमें
मुक्त करता है
उन समस्त प्रवंचनाओं से
जो हमारे मार्ग में बाधक हैं
कैसे समझाऊं तुम्हें
मेरे जीवन का सर्वस्व
तुम्हारे निमित्त है...!

6 comments:

Himanshu Pandey said...

कविता की संवेदना उत्कृष्टतम है । यह अक्षुण्ण भाव है, इसे सदैव अक्षुण्ण रखना होगा । कविता का आभार ।

श्यामल सुमन said...

प्रेम बांधता नही हमें
मुक्त करता है

सुन्दर भाव हेमन्त जी। वाह।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन भावपूर्ण.

वाणी गीत said...

प्रेम बाँधता नहीं ...मुक्त करता है ...प्रेम का सार यही है ..इसमें बंधन नहीं है..
खुले मन की मुक्त कविता ...!!

Gyan Dutt Pandey said...

प्रेम बांधता नही हमें
मुक्त करता है
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यह तो बहुत सशक्त विचार है।

पूनम श्रीवास्तव said...

Ek achchhee prem kavita-----badhai.
Poonam