खिड़की से आकाश
अपने सीमित फलक वाला दिखता है
क्षितिज का भी अपना पता नहीं
यह बोध कब होगा...!
ऐसा क्यों होता है
कमरे में बैठ कर
सामान्य चर्चाओं में नुक्ताचीनी
आकाश ऐसा है
आकाश वैसा है
खुद को आवरण में रखकर
बेहतर अभिव्यक्ति की अपेक्षा संभव है....?
किसी भी विचार अभिव्यक्ति के पीछे
देश,काल,वातावरण के अनुसार
काल,पात्र,विवेचन
प्रभावित होता रहा है ।
आकाश के विस्तृत फलक को
खुले मैदान में आकर ही
अनुभव किया जा सकता है
कि यह अपने आवरण में सर्वस्व समेटे हुए हैं ।
क्षितिज की परिधि में
आमूल-चूल रूप में
एक छोटी सी दुनियां है
जिसमें अपना संसार बसता है
और
इसके पार कल्पनालोकी दुनियां....!
8 comments:
आकाश के विस्तृत फलक को
खुले मैदान में आकर ही
अनुभव किया जा सकता है
कि यह अपने आवरण में सर्वस्व समेटे हुए हैं
Ekdam sahee ghar baith kar sansar ko nahee jana jata.
"कमरे में बैठ कर
सामान्य चर्चाओं में नुक्ताचीनी
आकाश ऐसा है
आकाश वैसा है" -
बिलकुल सही ! नहीं होनी चाहिये ऐसी नुक्ताचीनी ।
पर क्या करें - अजीब नुक्ताचीं है गमे दिल..।
कविता बेहतर है । चिन्तन योग्य ।
सुन्दर विचारणीय भाव!! बधाई.
Abhivyakti..bahut sundar...dhanywaad..
कमरे में बैठ कर
सामान्य चर्चाओं में नुक्ताचीनी
आकाश ऐसा है
आकाश वैसा है"
सही अभिव्यक्ति बधाई
नुक्ताची है ग़मेदिल..जिसको सुनाये ना बने..बहुत सुन्दर
शुभकामनायें ..!!
बहुत ही सुन्दर और गहरे जोडा है अपने भावो को .......एक बेहतरीन प्रस्तुति .......बहुत ही सुन्दर रचना!
"क्षितिज की परिधि में
आमूल-चूल रूप में
एक छोटी सी दुनियां है
जिसमें अपना संसार बसता है
और
इसके पार कल्पनालोकी दुनियां....! "
बाकी सब बाते स्वाभाविक हैं ....होता ही है ऐसा .....कमरे में बैठने वाले चर्चाये ही किया करते है .......कुछ नया नही है ......लेकिन यह बात नयी है ......शायद एक अर्थ में लघुता भी सुन्दर है ...उसकी भी अपनी गरिमा है .....प्रत्यक्ष सच ..... आपका सच ...हमारा सच यही "छोटी सी दुनियां " ही है ......आकाश अपने अथाह विस्तार में भी इस लघुता के वैभव से आखे नही मिला सकता ..........
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