Thursday, October 1, 2009

अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल.......!

कहते हैं
गत कर्मों का फल
यहीं मिला करता है
शायद यह सच भी है !

प्रकृति बार बार
सचेत कराती है
आओ !
अपने साथ हो रहे घटित से
सबक लो....!

अहंकार में मदमस्त मानव
अर्थ और काम में मस्त हो
खुद को लुटते देखकर भी
होश में जाने कब आये
क्या पता........?

उसे संजीवनी तो बस
अर्थ ही है
अर्थ का हांथ से फिसलना
अपने समानधर्मी गति से हो
यह
सार्थक अर्थों वाली होती है
और जब यही फिसलन
असमानधर्मी हो जाय
सारे समीकरण पल भर में बदल जाते हैं ।

फिर
अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल
कितना रह जाता है....!

8 comments:

Himanshu Pandey said...

सूत्र पकड़ते हो झट से !
चिन्तन श्रंखला बनती है, और फिर बन जाता है कविता का स्वरूप ।

बेहतर है । धन्यवाद ।

वाणी गीत said...

पल में बदलते समीकरण के बीच अर्श से फर्श तक पहुँचते देर नहीं लगती ..
बेहतर प्रस्तुति ..!!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

एक बात कहूँ?
इस तरह की विचार श्रृंखला के लिए पद्य उपयुक्त माध्यम नहीं है क्यों कि सीमा बँध जाती है। गद्य में लिखिए। बहुत ही अच्छा आएगा।
हिचकिचाइए नहीं, शुरू कीजिए। हम हैं ना।

निर्मला कपिला said...

अर्थ का हांथ से फिसलना
अपने समानधर्मी गति से हो
यह
सार्थक अर्थों वाली होती है
और जब यही फिसलन
असमानधर्मी हो जाय
सारे समीकरण पल भर में बदल जाते हैं ।

फिर
अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल
कितना रह जाता है....!
बहुत सुन्दरता से निभाया है इस सफर को शुभकामनायें

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

ati sundar prastuti

Gyan Dutt Pandey said...

गिरिजेश सही कह रहे हैं!

Mumukshh Ki Rachanain said...

फिर
अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल
कितना रह जाता है....!

सच ही कहा बंधू आपने.
हार्दिक बधाई.
हम लाभ हानि का गणित खुद ही बनाने में और अपने चश्में से देखने में इतना मशगुल हैं कि सत्य को समझाना ही नहीं चाहते. प्रकृति के पथ को भी भूल जाते है.........

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही सुंदर --इस खुलेपन की जितनी भी तारीफ़ करें कम है, दोस्त।

dher sari subh kamnaye
happy diwali

from sanjay bhaskar
haryana
http://sanjaybhaskar.blogspot.com