समय व असमय की सार्थकता
द्वन्दात्मक रूप में
क्षण-प्रतिक्षण
उकेरना आरंभ कर देते हैं
हर रंग को
बारी-बारी से
अतीत की घटी घटनाओं में
ठीक वैसे ही
जैसे
कोई व्याख्याता
प्रस्तुत कर रहा हो..
शोधपरक पत्र.....!
सरकते हुए विगत में
दर्ज होना कौन नहीं चाहेगा
परिस्थितिजन्य भटकाव
नियति पर
अनगिन आरोप थोप जाते हैं ...
और
रह जाता है अधूरा सा इतिहास....?
5 comments:
अधूरे इतिहास का दोष हर समय भटकाव ही नहीं होता ....नियति भी अपना खेल दिखाती है ....!!
कुछ नये प्रश्न खड़ी करती रचना ..........
BEHTREEN RACHANAA...
समय के मध्य जितना कुछ घटे वह निश्चिततः उसकी धारानुकूल ही होता है । समय अपनी विशिष्ट परिकल्पना में सब कुछ करवा ही लेता है हिसाब से !
द्वन्द्व जायज है ! अनुभूति के साथ अभिव्यक्ति का भी द्वंद्व !
कविता सुन्दर है । सजावट की माँग है अभी थोड़ी !
सरकते हुए विगत में
दर्ज होना कौन नहीं चाहेगा
परिस्थितिजन्य भटकाव
नियति पर
अनगिन आरोप थोप जाते हैं ...
सुन्दर कविता.
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