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अन्त में द्रोणाचार्य ने उसे सलाह दी कि उसकी माता गान्धारी परमव्रता हैं,वह अपने बेटे का अहित कभी सोच ही नहीं सकती । अत: यदि वह अपने पुत्र को अजेय होने का आशीर्वाद दे सकें तो फिर चिन्ता की कोई बात नहीं रह जाती है । ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि माता गान्धारी ऐसा आशीर्वाद नहीं देंगी ।
दुर्योधन को यह सुझाव उचित लगा । उसे निश्चय हो गया कि माता गान्धारी का आशीर्वाद पाकर वह अजेय हो जायेगा और फिर पांडव उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे । यह सोचकर वह अपनी माता गान्धारी के पास गया । उसने कहा. ”माँ, मैं युद्ध के लिये प्रस्थान करना चाहता हूं, प्रस्थान से पूर्व तुम्हारा आशीर्वाद चाहिये । माँ, मुझे आशीर्वाद दो कि मैं अजेय रहूं,मुझे कोई भी पराजित न कर सके । तुम्हारा आशीर्वाद पाकर मैं शत्रुओं को पराजित कर सकूंगा ।
माता गान्धारी ने कहा , “दुर्योधन , तू भूलता है । अजेय होने का आशीर्वाद मैं तुझे नहीं दे सकती।
दुर्योधन चौंक कर बोला,:ऐसा क्यों माँ ?”
“इसलिये कि ऐसा आशीर्वाद केवल उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जो धर्माचरण करता हुआ सत्य पर टिका हुआ है । तुमतो धर्म और सत्य से बहुत ही दूर हो।“
दुर्योधन विचलित होकर कहने लगा,”पर माँ मै तुम्हारा बेटा हूँ।
“इस सत्य से मैं कहाँ मुकरती हूँ , लेकिन मात्र पुत्र होने से ही मेरे सत्य और धर्म का अधिकारी तू तो नही हो जाता । यदि यह आशीर्वाद मैं तुझे दे दूँ तो मैं अधर्मी और असत्यमार्गिनी कहलाऊँगी । अजेय होने का आशीर्वाद मैं केवल उसी को दे सकती हूँ जो सत्य और धर्म के मार्ग पर चलता है और उसका एकमात्र अधिकारी युधिष्ठिर ही है ।“
माँ की बात को सुनकर दुर्योधन बहुत ही निराश हो गया । अति दुखी होकर उसने कहा,” तो माँ, मेरे लिये तुम कोई उपाय नहीं करोगी ?”
“उपाय तो युधिष्ठिर ही बतायेंगे । तुम उनके पास जाओ ।“
“पर वे तुम्हारे शत्रु हैं ।“
“तुम्हारी आँखें उन्हें शत्रु ही देखेंगी , किन्तु वे एक धर्म-परायण व्यक्ति हैं । विजय का उपाय तुम्हें अवश्य ही बतायेंगे । जाओ उनके पास ।“
विचारों में खोया-खोया दुर्योधन मन-ही-मन माँ की बात ध्यान में लेकर युधिष्ठिर के पास पहुँचा ।और अपने आने का अभिप्राय कह सुनाया ।
युधिष्ठिर कहने लगे, "यह तो बहुत ही आश्चर्य की बात है कि माँ गान्धारी ने तुम्हें मीरे पास भेज दिया है । वे मुझे धर्म परायण समझती हैं लेकिन इस समय पृथ्वी पर उनसे बड़ा धार्मिक व्यक्ति कोई है ही नहीं ।"
युधिष्ठिर के मुह से यह सुनकर दुर्योधन को अच्छा तो लगा लेकिन उसे पता था कि माता गान्धारी आशीर्वाद नहीं देंगी । उसने युधिष्ठिर से पूछा, "क्या सचमुच भैया इसमे संदेह और शंका के लिये तो बिल्कुल भी स्थान नहीं है, पर भैया मुझे स्पष्ट समझाओ कि धर्म और सत्य के विषय में बड़ा कौन है – आप अथवा माता गान्धारी
"निश्चय ही माता गान्धारी । मैने कहा कि इस समय संसार भर में सबसे अधिक सत्यमार्गी होने का पुण्य और सौभाग्य माता गान्धारी कि ही प्राप्त है ।"
"इसका क्या प्रमाण है ?"
"इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि आज तक किसी नारी ने अपने पति के अवगुण को आत्मसात नहीं किया है जबकि माता गान्धारी विश्व की पहली स्त्री हैं जो पति के अन्धे होने के कारण स्वयं भी आँखॊं पर उसी दिन से पट्टी बाँधकर जी रही हैं जिस दिन से उनका विवाह हुआ । पति के अन्धेपन का दुख भोगे और पत्नी आँखॊं का सुख भोगे इस विषमता को दूर करने के लिये ही उन्होँने विवाह के प्रथम दिन से ही आँखॊं पर पट्टी बाँध ली थी । बताओ आजतक किसी स्त्री ने धर्म सत्य और पतिव्रत धर्म के मार्ग पर इतना बड़ा बलिदान किया है."
"पर भैया माता ने तो मुझे तुम्हारे पास ही भेजा है ।"
"यह उनकी महानता है कि वे अपने कॊ इतना बड़ा सत्यमार्गी नहीं समझती । लेकिन मैं तुम्हें उपाय बता रहा हूँ । तुम माता के सामने सर्वथा नंगे होकर चले जाओ और उनसे निवेदन करो किवे एअ बार आंखॊं से पट्टी हटा कर तुम्हारे सारे शरीर को देख लें और उसपर पूर्ण दृष्टिपात कर दें । ऐसा होने पर तुम्हारा सारा शरीर ही वज्र का हो जायेगा । फिर उसे कोई भी छेद अथवा भेद नहीं सकेगा ।"
"माता गांधारी का पुण्य और उनकी दृष्टि की दिव्यता, जो पति की भक्ति में रहने के कारण प्राप्त हुई है . तुम उनके पास जाकर दृष्टिपात करने के लिए निवेदन करो ."
दुर्योधन अपनी माता के पास जाकर बोला, "माँ भैया ने कहा है कि तुम अपनी आँखों की पट्टी खोलकर एक बार पूर्ण रूप से मेरे सारे शरीर पर दृष्टिपातकर दो ."
गांधारी ने दुर्योधन की बात को स्वीकार कर लिया . दुर्योधन माता के सामने सर्वथा नंगा होकर नहीं आ सका. लाज के कारण उसने लंगोट पहन ली थी. सामने आने पर माता गांधारी ने अपनी आँखों की पट्टी खोल दी और दुर्योधन के पूरे शरीर पर दृष्टिपातकिया. लेकिन लंगोट वाला हिस्सा तो ढँका हुआ होने के कारण कच्चा ही रह गया, शेष सारा अंग लोहे जैसा वज्र हो गया.
महाभारत युद्ध के अंत में दुर्योधन और भीम में गदा युद्ध हुआ. इस युद्ध में भीम गदा मारते मारते थक गया था, लेकिन दुर्योधन को नहीं मार सका. कृष्ण जानते थे कि लंगोट वाला अंग कच्चा रह गया है. अतः उन्होने भीम को संकेत किया, तभी दुर्योधन मारा जा सका था .
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यह कथा किताबघर से प्रकाशित श्री ब्रजभूषण की पुस्तक नारी गुणों की गाथायें से ज्यों की त्यों प्रस्तुत कर रहा हूं । पुस्तक की कुछ अन्य कथाओं से नारी के अनिवार्य गुणों से हम परिचित हो सकेंगे । किताबघर और श्री ब्रजभूषण से बिना अनुमति के लिख रहा हूं, क्षमा प्रार्थी हूं इसके लिए । साभार ।
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