Tuesday, October 20, 2009

दोराहा......

पापा क्यों नहीं घर आ रहे मम्मी ! दीवाली भी बीत गयी ! बहुत दिन पहले आये भी तो बस पीछे का दो कमरा बनवा गये । बिटिया के सवालों का जवाब मीरा कैसे देती । पिछले कई बार से उनके आने पर बदले हुए हाव -भाव कुछ नकारात्मक संकेत दे ही रहे थे कि बच्चों के बार-बार पूछने पर जवाब देते नहीं बन रहा था । हां उनका एक काम अप्रत्याशित दिख रहा था कि इतने सारे पैसे लगातार रोजमर्रा की कमाई से अधिक कहां से ला रहे थे । राज कुछ समझ में भी न आ रहा था कि इतने पैसे आये कहां से कि पीछे का दो कमरा आसानी से बनवा दिया ।

इधर राहुल पैसे कमाने की बजाय पैसे पाने की ओर ऐसा उन्मुख हुआ कि इतना आगे निकल आयेगा उसे खुद भी पता न था । दुकान पर काम करने की बजाय एक ऐसी औरत जो अपना घर बार सब छोड़ नयी दुनियां की तलाश में आ मिली राहुल से । हां पैसे थे उसके पास । उसने एक मरद की खातिर अपना सारा पैसा - गहना सब इसी राहुल को दे दिया । वह राहुल के बताने पर भी उसकी दूसरी बीबी बनने को तैयार हो गयी । राहुल दो
लड़कों व एक लड़की समेत तीन बच्चों का बाप था । कायदे से  दो वक्त की रोटी भी जुटाना मुहाल था । सोचा कि पहले इसके पैसे से घर बनवा लूं  बीबी और बच्चों को बाद में मना लूंगा । तब तक इसे इधर ही किराये के मकान में रखुंगा । किसी को पता भी न चलेगा । आसानी से घर भी जाया करूंगा और बीबी और बच्चों की परवरिश भी होगी  और इधर कमा धमा एक नया घर बना इसे अलग रखूंगा । दोनों बीबियां अलग-अलग रहेंगी किसी को क्या ऐतराज मैं एक बीबी रखूं या दो । अरे यह तो इतना सारा पैसा हमें दे रही है कि दोनों को भली - भांति रख सकूंगा और बच्चों को आसानी से पढ़ा- लिखा सकूंगा । लेकिन कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था।

राहुल का दोस्त अचानक दूसरी औरत के साथ राहुल को बाजार में देख राहुल का पीछा करना शुरु किया । अवाक रह गया वह । वह उसकी दूसरी बीबी होगी पहली के रहते अन्दाजा ही न था । राहुल तो मुह छिपा रहा था पर वह औरत बोली मैं इनकी दूसरी बीबी हूं । मैने इनके साथ कोर्ट मैरिज की है । कुछ ही महीने में मुझे बच्चा भी होने वाला है । यह जान होश उड़ गये रमेश के । भागा भागा आया गांव । अरे भाभी गजब हो गया । कैसे कहूं आज जो अपनी आंखों से देखा । सब कुछ क्रमशः सुना गया वह । सुनते ही मीरा के पांव तले धरती खिसक गयी । बताने लगी वह कि इसी लिये यह हमसे मुह छिपा रहे थे । मैं भी कहूं कि इतना सारा पैसा आया कहां से कि मकान आसानी से बन गया । हाहाकार मच गया परिवार की जिन्दगी तबाह हो गयी । रमेश ने मोबाईल नंबर दिया । पी सी ओ से बात करने पर फोन दूसरी बीबी ने  उठाया और कहा -- मै राहुल की दूसरी बीबी बोल रही हूं ....। वह घर पर नहीं हैं ..।कोई काम हो तो बता दीजिये मैं बता दूगी । फोन पर ही तू-तू ,मैं-मैं शुरु हो गयी ।उसने कहा-- जो आप के यहां घर बना है वो मेरे ही पैसे का बना है........। मीरा बेहोश हो गिर पड़ी....।

Monday, October 19, 2009

इन बन्धनों से ..........!

नारी.......
त्याग और उत्तरदायित्वों से सराबोर
परंपरायें भी सिर चढ़ के बोलती हैं
हां तुम्हें नहीं मुंह मोड़ना
बरकरार रखना है अपनी परंपराओं को
बरबस ही कैसे बच सकती है
सामाजिक सरोकार
अपनी संपूर्णता लिये
आच्छादित हो जाते हैं
विरोध का स्वर छिप सा जाता है
नहीं निकल पाती आवाज
मुक्त कर दो हमें
इन बन्धनों से ..........!!

Saturday, October 17, 2009

आईये दीपावली मनायें....!

आईये दीपावली मनायें !
प्राकृतिक और पारंपरिक ढंग से
कम से कम
एक दिन साल में ऐसा हो
जिस दिन
घर- आंगन रोशन हो
कृत्रिम रोशनी से नहीं
पारंपरिक घृत व तेल के दीयों से
आतिशबाजी हो
पटाखों की नहीं
सार्थक विचार - अभिव्यक्ति की
गूंज उठे जहां सारा.....।

                                                              ( शुभ दीपावली )

Thursday, October 15, 2009

कहां जायेंगे अरमान...

माता पिता के अरमानों में
लग जाते हैं पंख
बड़ा ही विशाल फलक
हो जाता है निर्मित
जब नन्हा सा बालक
स्कूल जाना शुरू करता है
पिता हर जगह से खर्च में
करता है कटौती
मां घर का बजट है सुधारती
कि कहीं से कोई कमी ना रह जाय
हमारे अरमान तो धूल धूसरित हो गये
बच्चे के अरमानों के पंख न कटें ।

बच्चा अब बड़ा हो चला है
किशोर हो गया है वह
लग गयी है हवा
मादक पदार्थों की
सोहबत का असर जो है
क्या पढ़ाई - क्या लिखाई
अब तो ये डिस्को जाते हैं

कहां जायेंगे अरमान
माता पिता के
उनकी बुराई इतना कहर ढायेगी
क्या पता
बिगाड़ दी बुढ़ौती

वह माता - पिता जिसने जन्म दिया
वही सोचते हैं
जन्म ही क्यों दिया ऐसे बच्चे को ।

Wednesday, October 14, 2009

उसके उड़ानों के कोई पंख न काटे....

एक नारी
अपनी ही बिरादरी की
कैसे हो जाती है दुश्मन
शुरू हो जाता है
अत्याचारों का सिलसिला..
एक, दो,तीन ही नहीं अनेकों
प्रताड़ना है कि अपना स्वरूप बदल-बदल कर
आ जाती है सामने
रुकने का नाम ही नहीं लेती
शायद वह भूल जाती है
उसने भी लिया होगा
मां के ही कोख से जन्म
पली बढ़ी होगी
ब्याही गयी होगी
पिया के घर
संभव है
उसके साथ हुआ होगा भेद-भाव
क्या उस भेद-भाव का बदला
भावी पीढ़ी से लिया जाना
कहां तक उचित है ?

अब तो महिला सशक्तिकरण की बात चल रही है
हर मां को भी आना होगा आगे
ना हो भेद-भाव
बेटी के जन्म पर
गाये जांय सोहर
दादी अम्मा बलैया लें
घर में बाजे ढोल
मनोदशा के विकास में ना हो वह कुण्ठित
वह भी पढे़ उसी स्कूल में
जहां उसका भैया पढ़ता है
उसके उड़ानों के कोई पंख न काटे
जीये अपना जीवन करीने से ।

Tuesday, October 13, 2009

आओ ! बातें करें.....

आओ ! बातें करें
आज क्यों नहीं है सुख-शान्ति ?

आओ ! बातें करें
कितना अस्त-व्यस्त है जन-जीवन ?

आओ ! बातें करें
इतना क्यों हाहाकार मचा है ?

आओ ! बातें करें
अरमानों ने क्यों दम तोड़ा है ?

आओ ! बातें करें
इन्तजार की घड़ी इतनी लम्बी क्यों है ?

आओ ! बातें करें
दरस को प्यासे नयन क्यों हैं ?

आओ ! बातें करें.....!

Monday, October 12, 2009

समय की तूलिका से........!

जीवन का एक-एक पल
समय की तूलिका से
रच रहा अप्रतिम इतिहास
जब भी पलट कर देखता हूं
नित अधुनातन हो रहा
अतीत की एक-एक ईंट से
चुनी दीवारों पर
अरमानों के छ्त
न जानें कब पड़ेंगे
विचारों के कपाट
संवेदनाओं के वातायन
कहीं ढूंढते ने फिरें
अपनी पहचान को
यही सोच कर हैरत में हो जाता हूं
आशा - निराशा के बीच
अन्तराल का तनाव
कहीं भटका न दे
हां !
शायद  इसीलिये
पल प्रतिपल
बुनता हूं ऐसा ताना-बाना
विवेकी होकर
कहीं इतिहास का रंग - रोगन बिगड़ ना जाय ।

Saturday, October 10, 2009

......सभी पूर्णांक हो जाते हैं नतमस्तक

जब तुम्हारी उपस्थिति होती है
अनोखा पर्यावरण
निर्मित हो जाता है
सभी पूर्णांक हो जाते हैं नतमस्तक

उसमें नहीं होता
ओजोन छिद्र का प्रभाव
नहीं होती है मात्रा
आर्सैनिक की पानी में
नहीं चिन्ता घटते जल स्तर की
नहीं है विषाक्त गैसों का प्रभाव
और कुछ भी नहीं होता क्षत-विक्षत......!

वहां
वह सब कुछ है
जिनसे मिलती हैं
अनन्त खुशियां
स्वच्छ वातावरण
चंहुदिश हरियाली
पक्षियों का कलरव
जिस जहां में यह सब हो
उसकी रचना कैसी होगी
तुम्हारे अंकेक्षण में
सभी पूर्णांक हो जाते हैं नतमस्तक
कहां और किसकी होगी परीक्षा ।

Thursday, October 8, 2009

...साथ ही भूल सुधार के लिये भी

अस्वस्थता
गजब का अवकाश है
चेतन अवचेतन से परे
बस गुजरना भी
चिकित्सकीय परीक्षण से

अस्वस्थता से
स्वास्थ्य-लाभ की यात्रा में
बड़े सरोकार हैं
और पैरोकार भी
बन जाता है स्वास्थ्य-लाभ
एक उत्सव-सा
इस भागमभाग से
कुटुम्ब और समाज
ऐसे अवसर पर
यथोचित भागीदारी से नहीं चूकता
संभव है कि यही सामाजिक आत्मीयता हो
समरसता के लिये
सामंजस्य के लिये
सदभाव के लिये
और साथ ही भूल सुधार के लिये भी ।

Tuesday, October 6, 2009

हां सर्वस्व मेरे.......!

सर्वस्व मेरे !
तम छंटा..
हूं मैं तुम्हारे
आलोक में ।

क्या है ...
निजशेष
उठा लिया है अपनी गोद में
तुम्हारी दृष्टि का सावन
मुसलाधार है या मद्धम
ज्ञात अब क्या बचा है ।

तुम्हारे आशीर्वचनों ने
समूचे दुःखों को हर लिया ...!

हां सर्वस्व मेरे.....!

Sunday, October 4, 2009

ईमानदारी और आस्था ने क्या दिया उसे

आज उसके घर में चूल्हा नहीं जला
हांडी बर्तन सब कोसते रहे
अपने को
खैरात में मिला अनाज
लौटा जो दिया था...!
ईमानदारी और आस्था ने क्या दिया उसे
सिवाय आशा के
ढिबरी भी ढुलक गयी
मां का आंचल भी जल गया ।

बच्चों ने भी कहा -
बाबू को कल काम जरूर मिलेगा
मां का कलेजा मुंह को आ गया
क्या समझदारी और बीच के रास्ते की भावभूमि
आभाव में ही पलती है
लाचार बाप भी क्या कर
सुबह का इन्तजार
क्या नरेगा क्या आम मजदूरी
सबने न्याय किया है .....?
अमीरी और गरीबी की
यह खाईं क्यों नहीं पटती
बस कागज पर रिकार्ड ही सुधरेंगे ।

Saturday, October 3, 2009

हार जीत का मोल नहीं......


हार जीत का मोल नहीं
बस खेले जा रहे हैं बच्चे
ये छक्का
ये चौका
एक रन
दो रन
ये रहा तीन
अब तेरी बारी
अब मेरी बारी
आउट हुआ तो क्या हुआ
फिर से खेलेंगे
रन बना के  छोड़ेंगे ।

इन्हें नही मतलब
रिकार्डों से
आइ सी सी से
हार जीत से
इनका खेल तो बस
आनन्दोत्सव  है......!



                                                               (चित्र गूगल से साभार)

Friday, October 2, 2009

सांझ बिहान की यात्रा में...

सांझ बिहान की यात्रा में
अनेकों पड़ाव
रात्रि
रात्रि के पहर
अगला चरण भोर का
ब्रह्ममुहूर्त
पक्षियों का कलरव
मानस को झंकृत करने को आतुर....!
सूरज की किरणें
नित नयेपन को आमंत्रण दे रही हैं ...!

Thursday, October 1, 2009

अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल.......!

कहते हैं
गत कर्मों का फल
यहीं मिला करता है
शायद यह सच भी है !

प्रकृति बार बार
सचेत कराती है
आओ !
अपने साथ हो रहे घटित से
सबक लो....!

अहंकार में मदमस्त मानव
अर्थ और काम में मस्त हो
खुद को लुटते देखकर भी
होश में जाने कब आये
क्या पता........?

उसे संजीवनी तो बस
अर्थ ही है
अर्थ का हांथ से फिसलना
अपने समानधर्मी गति से हो
यह
सार्थक अर्थों वाली होती है
और जब यही फिसलन
असमानधर्मी हो जाय
सारे समीकरण पल भर में बदल जाते हैं ।

फिर
अर्श और फर्श के बीच का अन्तराल
कितना रह जाता है....!