अब नहीं आते बाबा
सारंगी वाले
बचपन में
दादी
दिया करती थी
भर पेट भोजन
और
साथ में ढेर सारा दान
प्रसन्न हो
बाबा सुनाते थे --
बदले में
कई निर्गुण..!
हम सब बच्चों की टोली
जमा हो जाती थी उनके आस-पास
हम सभी
बस इतना ही जानते थे
बाबा हैं तो
राम धुन ही गायेंगे....!
अब न दादी रहीं, न दादी का दान,
समय की करवट ने
छीन लिया बाबा, निर्गुण, रामधुन को ।
तो
अब नहीं आते
बाबा सारंगी वाले....!
8 comments:
भावुक रचना।
अच्छी कविता ..!
आपने बचपन की यादें ताज़ा कर दीं ... सारंगी पर निर्गुण सुनना बहुत मोहक अनुभव होता था ... गेरुआ कपड़ों में द्वार द्वार निर्गुण गाते बाबा किसी भंडारे के लिए दान लेते थे... और इतने मोहक और अर्थपूर्ण गीत गाते कि हम कई बार उनके पीछे पीछे कई घरों तक जाते ... सच सब कुछ ताज़ा हो गया .. बहुत आभार आपका
कुछ चरित्र संवेदना के अंतिम स्तरों तक पहुँचते हैं, यद्यपि होते हैं नितान्त अपरिचित...पर बिलकुल जाने पहचाने, सदैव उपस्थित-से हम बनाते, सँवारते रह्ते हैं।
बाबा सारंगी वाले आपकी भावुक, संवेदित आत्मीय प्रतिक्रिया है ।
बचपन की यादों के साथ एक युग को --समय को संजोती रचना।
बेहतरीन रचना---आपके बचपन से जुड़े प्रसंगों को अभिव्यक्त करती हुयी।
good
बरजोरी ले आये बचपन की ओर । जोगिया रंग में जोगी बाबा । सरङी और तुमड़ी । गर्मियो के दिन , दोपहर का समय । सरङी की आवाज । राग सारंग से सर्वथा मुक्त (अब सोचता हूँ ) । कुछ लोग डराते भी थे’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’ लकड़सुंघवाँ है , पकड़ ले जायेगा ।
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