Monday, November 2, 2009

अहंकार के बादल......

रुतबा
शब्द आते ही
सायास

दिलो -दिमाग के किसी कोने में
अहंकार के बादल
घुमड़ - घुमड़
हवा के साथ - साथ
गलबहियां शुरु कर देते हैं

सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।

6 comments:

vandana gupta said...

waah .........kya khoob baat kahi hai aur kitna gahan utarkar likha hai.........badhayi

Ashish Khandelwal said...

सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।

Waah

Happy Blogging

वाणी गीत said...

जैसे की आपने इतने लम्बे अरसे तक समेटे रखा खुद को अच्छे समय के इन्तजार में ...
हिमांशु का खोल से बाहर आने का मुहूर्त निकला नहीं अभी ...??

Gyan Dutt Pandey said...

बिल्कुल, समेटते हैं अपने में; नष्ट नहीं होते कदापि!

शरद कोकास said...

कछुए के बिम्ब का इस कविता मे सुन्दर प्रयोग है ।

अभिषेक आर्जव said...

रुतबा और अहंकार में तो निश्चित ही गहरी सांठ गांठ है !