रुतबा
शब्द आते ही
सायास
दिलो -दिमाग के किसी कोने में
अहंकार के बादल
घुमड़ - घुमड़
हवा के साथ - साथ
गलबहियां शुरु कर देते हैं
सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।
6 comments:
waah .........kya khoob baat kahi hai aur kitna gahan utarkar likha hai.........badhayi
सार्थक विचार
खुद को समेटना शुरू कर देते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
कछुआ विपरीत समय में
सही अवसर के इन्तजार में
समेट लेता है अपने - आपको ।
Waah
Happy Blogging
जैसे की आपने इतने लम्बे अरसे तक समेटे रखा खुद को अच्छे समय के इन्तजार में ...
हिमांशु का खोल से बाहर आने का मुहूर्त निकला नहीं अभी ...??
बिल्कुल, समेटते हैं अपने में; नष्ट नहीं होते कदापि!
कछुए के बिम्ब का इस कविता मे सुन्दर प्रयोग है ।
रुतबा और अहंकार में तो निश्चित ही गहरी सांठ गांठ है !
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