राह पर चलता हुआ आदमी
निहार रहा है
राह के कंकड़ों को
जिसने कितनों से खाया होगा
ठोकर
उसकी ओट में
जा दुबकती चींटी को
यह समझ कर कि
कहीं यह मेरे पैरों से
दबने के डर से
ही नहीं जा चिपकी है
उसकी ओट से
नन्हीं सी जान
जिसे बोध है
जीवन मरण का
आज
आदमी
महत्वाकांक्षा की होड़ में
खुद को भूलता जा रहा है
रास - रंग व भौतिकता से अवकाश
शायद
उसके अपने बस की बात नहीं !
8 comments:
सुन्दर कविता !
राग रंग और भौतिकता से प्रभावित हुए बिना महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं ...वर्तमान को सहजता से प्रकट करती हुई कविता ..!!
bahut hi sahi baat aur bahut hi sanyat shabdon mein kahi.
महत्वाकांक्षा नहीं है गलत। पर स्वयं को भूलना और अपने को अपने नियंत्रण से छोड़ देना अपराध है जो हम उतरोत्तर अधिक करने लगे हैं!
चलो खुशी मिली आप वापस आये ..अब ये बताइए नेट सही हुआ या कही और से
एक बहुत सुन्दर कविता.
सुन्दर रचना...
उसके अपने बस की बात नहीं ! हां , बात तो अपने बस की नहीं है …….बहुत सारी चीजों के निर्धारक न चाहते हुये भी दूसरे हो गये हैं !
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