जब जब उठने का अवसर मिला
धड़ाम से गिरा दिया जाता हूँ मैं
कभी प्रकृति
कभी नियति
कभी किसी बड़ी बीमारी का
आकस्मिक अटैक
कि झट से उबर भी न सको
असर पड़त्ता है मनोदशा पर
रुटीन इकोनोमी पर
अपनों पर
जुड़े शुभेक्षुओं पर ।
सुबह से शाम तक सरकती
जिन्दगी
रात को आराम ले
फिर आ खड़ी होती है कमर कसके
हर क्षणका सामना डट के करने को
इस चल रही निरन्तर प्रक्रिया में
शरीर के साथ ही मनोदशा की भी
जम के परीक्षा हो जाती है
आखिर कब तक लगातार
परीक्षा में पास होता रहेगा
शरीर, फिर मनोदशा
चुकना भि तो है नियति
सो स्वभावतः
बीमारी का निशाना बन पड़ा
अब तक जो भी पाने में
बिना खयाल किये
खटाया था
चलो अब जुर्माना दो
जब प्रकृति संतुलन पर आधारित है
देह-धर्म कैसे अलग हो सकता है भला .... ।
9 comments:
मैंने तुम्हें कविता लिखने की तमीज सिखलानी चाही थी-यद्यपि जानता खुद भी नहीं था -आज सोचता हूँ वह तमीज किस काम की - तुम कह्ते थे कविता के मामले में बद्तमीज हो - यही सही । जब सब कुछ अभिव्यक्त हो ही रहा है, सहज ही कविता बन रही है ।
इन पंक्तियों ने ठहरा दिया -
"अब तक जो भी पाने में
बिना खयाल किये
खटाया था-
चलो अब जुर्माना दो"
भाई,बीमारी हर तरह से परेशान करती है आप ठीक होकर अच्छे से अपना ब्लाग लिखें यही कामना है।
उम्मीद है अब प्रकृति से संतुलन बनाकर चलेंगें।
चलो अब जुर्माना दो
जब प्रकृति संतुलन पर आधारित है
देह-धर्म कैसे अलग हो सकता है भला .... ।
लम्बे अन्तराल के बाद लिखी गयी आपकी इस कविता ने मेरे मनोभावों को भी जबान दे दी है ...यही जीवन है ...एक पल आशा ...एक पल निराशा ...
अस्वस्थता के बीच सकारत्मक विचार मदद करते है ...शारीरिक और मानसिक अवस्था को दुरुस्त करने में ...शुभ हो ...शुभकामनायें ...!!
जल्दी ठीक होईये -शुभकामनाएं !
deha dharma kaa nirvaaha to karana hee hai |
अच्छी रचना---सुन्दर शब्दों में----।
एक मनःस्थिति को बड़ी सहजता के साथ कवित में उकेरा है आपने। अच्छी रचना।
हेमन्त कुमार
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