कलियुग के गुण धर्म का
एक नया संस्करण सामने है
प्रकृति का ऐसा अनगढ़
जिसे कभी प्राकृतिक सुख न मिला
जीवन के रंगो को जाना पहचाना नहीं
आज ऐसी कुर्सी पर है
जहां कभी विलक्षण प्रतिभा के धनी
सुशोभित हुआ करते थे
दिया था उन्होंने कितनों को अभयदान
उसी कुर्सी पर बैठ कर
यह
अपनी दोहरी भूमिका निभा रहा है
खुद को सच का चोंगा पहना कर
घात-प्रतिघात के निर्णय निर्माण में
दर-ब-दर तूलिकाएं तोड़ रहा है
खुद जिसके कर्म का कौमार्य
उसे चिढ़ा रहा हो
उससे न्याय की कल्पना
जो आदर्शोन्मुख हो
शायद अनुचित है
उसके न्याय में सिवाय स्वांग के
और क्या होगा
ऐसे फैसलों को अनुभव कर
कुर्सी व कलम की रूह हिल गयी होगी
तरस आया होगा उसे अपने आप पर ।
न सह सके ऐसे व्यक्तित्व का बोझ वह
न देख सके अपने इतिहास को कलंकित
शायद इसी लिए नियति के खेल ने
कुर्सी को कबाड़खाने भेज दिया
उसपर पुराने होने का आरोप लगाकर........!
आज उसका स्थान नयी "चेयर" ने ले लिया था ।