सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की कविता
बांधो न नाव इस ठाँव बन्धु!
पूछेगा सारा गाँव बंन्धु!
यह घाट वही जिसपर हँस कर,
वह कभी नहाती थी हँसकर,
आंखें रह जाती थी फँसकर,
कंपते थे दोनों पाँव,बन्धु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
देती थी सबको दाँव,बन्धु!
8 comments:
सूर्यकांत त्रिपाठी जी " निराला " की कविता प्रस्तुति के लिए आभार. कभी बचपन में निरालाजी की काफी रचनाये पढ़ी है . धन्यवाद.
sundar kavita nirala kee ki
bahut hi khub .......ek sundar bhaaw our shabdo wali rachana.......dil khush ho gaya hai .....badhaaee ho Hemnat bahi
निरालाजी की कविता प्रस्तुति के लिए आभार..
Niraala ki baat hi niraalii hai Bandhu !! Aabhaar ye kavita phir se padhvaane ke liye.
मेरी कुछ प्रिय कविताओं में शामिल है यह कविता । अपने प्रकाशन से ही यह कविता चर्चा में रही- और अपने लिखे जाने के पीछे की दृष्टि पर विचार-विमर्श करवाती रही । इस कविता से निराला पर पलायनवादी होने का आरोप भी लगा ।
कविता की प्रस्तुति का आभार । धन्यवाद ।
निराला जी की निराली कृति के लिए धन्यवाद ...............
क्या आप लोगो को पता है कि निराला जी ने ये कविता कहाँ और किसकी याद में लिखी थी ?
निराला जी ने यह विख्यात ममस्पर्शी कविता अपनी पत्नी मनोहरा देवी की स्मृति में माँ गंगा के किनारे , बसे इस पौराणिक स्थल ( डलमऊ) में एक गुम्बद में बैठकर लिखी थी जो पक्का घाट पर बना है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है...
कृपया इस लिंक को देखे
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धन्यवाद्
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