नियति का खेल
बड़ा अजीब होता है
बच नहीं सकता है कोई इससे
इस जगत में।
जगत भी एक बगिया है
ईश्वर इसका माली है
इस बगिया का हर अच्छा पुष्प
जिसे वह समझे........
यह अपनी पूर्णता ओर है
सभी पुष्पों में उसे सबसे पहले
तोड़ लेता है
उसके तोड़ने के पीछे
संभव है पुष्प के विकृत होने से बचाने का भाव हो ।
आप नहीं हो हमारे साथ
आपका जीवन दर्शन तो है ......!
( पिता जी की २८वीं पूण्यतिथि पर उनको समर्पित)
9 comments:
अच्छे भाव!
बेहतरीन!!
सुन्दर रचना के लिए बधाई!
जिनके छाया-चिन्ह तुम्हें उत्प्रेरित करते हैं वे छाया बन जाने की अनिवार्यता लेकर ही उपस्थित होते हैं इस जगत में । ईश्वर की अनुकंपा उन्हें ही तो प्राप्त होती है क्षण-क्षण । अवधि का नहीं, विविध का प्रतिपाद्य ढूँढ़ना होगा हमें उनके जीवन-क्रम में ।
बात सबसे पहले की भी नहीं - सबसे जरूरी की है । जरूरत कब आन पड़े ? कौन जाने ? निःशेष तो रह जाता है एक एक सम्पुट उनकी अनुभव शृंखलाओं की चासनी में पगा ।
भावात्मक कविता का आभार ।
Saathak bhaav.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
अति सुन्दर. भावुक प्रस्तुति.
- सुलभ सतरंगी (यादों का इंद्रजाल)
sundar darshan
pita jee ki punyatithi par unako sat sat naman
Bahut achchhee lagee ye rachna....bhavnatmak...aur sahaj shabdon men likhee gayee.
Poonam
बेहतरीन भावाव्यक्ति!!!!
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