कल तुम्हें देखा
एकटक निहारते हुए
तुम्हारी आंखों मे
गुजरे हुए कल की तस्वीर
स्पष्ट दिख रही थी
अब तुम लड़की से स्त्री हो चली थी
तुम्हें देख के ऐसा लग रहा था
मानो तुम्हारे मनोभाव
अपने आप को कोस रहें हो
हमें देख कर साथ-साथ।
अगर मैं भी लड़का होती
मुझसे जीवन में कुछ भी न छूटता
न मां-बाप का घर
ना ही सखि-सहेलियां
सब कुछ पास होते
अब तो पिया का घर
ही अपना आशियाना है।
मां ही क्यों कहती है......
वंश तो लड़के चलाते है
लड़की को पराये घर जाना है
उद्विग्न हो उठता है मन।
शायद मां भूल जाती है
वह भी एक लड़की ही है
फिर क्यों करती है भेद
क्या लड़कियों से नहीं संवरता है जीवन .........?
8 comments:
आजकल लड़कियों से ही सँवरता है जीवन हेमन्त जी। भाव अच्छे लगे।
औरतें ही चलाती हैं वंश
पुरुषों के
दिनेशराय जी के बात से पूर्णतः सहमत. औरतें ही चलाती हैं वंश पुरुषों के.
yae vansh purush ka kyun kehlaataa haen ??? jab tak vansh purush ka hoga aur aurat ko chalaanae vaali kehaa jayaega hamarae samaaj mae kabhie koi sudhaar nahin aayaega
बहुत अच्छी कविता. लिखते रहें.
संवेदना छू रही है तुम्हें कुछ बेहतर की अभिव्यक्ति के लिये । लिखते रहें बेहतर अभिव्यक्त होता रहेगा ।
बेहतरीन कविता.........
मेरी एक ही बेटी है। मैं भी ज़िद में हूँ कि मेरा वंश वही चलायेगी।
बहुत कुछ कहा ज़माने ने कि एक ही बेटी काफ़ी नहीं है, बेटा होना चहिये। मैने सोचा, देखा जायेगा, किसी को तो पहला कदम उठाना ही पड़ेगा। है न?
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