Sunday, September 20, 2009

कलुषित हो जाता है मन....!

कलुषित हो जाता है मन
दिन ब दिन
प्रवंचनाएं नये रंग ला रही हैं
जब भी कुछ नया करने को सोचता है मानव ।

जाने क्यों
सींखचों में जकड़ा सा पाता है
जब भी विचारधाराएं
पंख पसार उड़ना चाहती हैं
लगता है जैसे
पहले से ही कोई जाल बिछाये है ।

राहों के दरवाजों पर
सांकले लगा दिये जाते हैं
घुट कर दम तोड़ देना
जैसे नीयति सी हो गयी है ।

बार बार यही सुनना
कथित संभ्रांत लोगों से
अरे नहीं!
यह हमारी परंपराओं के खिलाफ है
इस भाव का प्रतिध्वनित होना
धुधले आवरण में
ढंक लेता है ।

क्या इन अतृप्त आत्माओं से
साहचर्य दे पायेगा उचित दृष्टिकोंण....!

6 comments:

Himanshu Pandey said...

"क्या इन अतृप्त आत्माओं से
साहचर्य दे पायेगा उचित दृष्टिकोंण....! "

एकदम नहीं । कैसा साहचर्य... सब कुछ विलगाने का ही तो षड़यंत्र है ।

M VERMA said...

सींखचों में जकड़ा सा पाता है
जब भी विचारधाराएं
पंख पसार उड़ना चाहती हैं
उडने की तो अनुमति मिल जाये जब यह पता चल जाये कि पंख कुतरे जा चुके है.

वाणी गीत said...

उडने की तो अनुमति मिल जाये जब यह पता चल जाये कि पंख कुतरे जा चुके है...
वर्माजी की टिपण्णी आपकी कविता में निहितार्थ को पुष्ट कर रही है ..

अपूर्व said...

सटीक और सामयिक रचना..आपकी दुविधा और संशय से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ..

दिगम्बर नासवा said...

लाजवाब सुन्दर रचना है .......... कमाल की अभिव्यक्ति है ........

अभिषेक आर्जव said...

'सीकचे' सचमुच जटिल है !........जटिल नहीं .....कीच जैसे....लतफत....अनिश्चित.... हीन.....